Ratna Bhanʼdʼaar Arthaat Jnj-aan Raamaayand-a

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परभमहिमा ओर उसकी आजञा- पालन का फल ।

वयापक एक बरहम अविनाशी । सत चतन घन आननदराशी ॥ अगण अदभ गिरा गोतीता । समदरशी अनवदय अजीता ॥ निमम निराकार निरमाहा । निय निरनजन सखसनदोहा॥ परध सजञ बरहम अविनाशी । सदय एक रस सहज उदासा॥

इशयर सचचिदाननद सवरप, आननद की राशि, सकद

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शानरामायण ( २ ) परभमददिमा __>>-०+०८+ अ 4२७०+कणाा

बयापक, अविनाशी, अकरला, समदरशी, निगण, दमभरहित धाणी ओर इनदरियो स पर, निरदोषी, अजय ममता, आकार झओर मोह स रहित, निरजन, सखसवरप, सजञ, सवाभाविक उदासीन और सवदा एक रपत रहन वाला ह ।

वितपद चल सन विलकाना। कर वित कम कर बिधिनाना॥ आननराहत सकल रस भागी । पिन वाणी वकता बड यीगी ॥ तन वन परश नयनपस दखा । गह पराण विस वास अशषा॥ वह परभ विना परो क चलन, विना कानो क सनन, बिना

हाथो क नाना परकार क कम करन वाला, मख क विनो सब रस का चखन, विना वाणी क वहत बोलन वाला, योगी, विना शरीरक सबको छन, नतरोक विना दखन और नासिका क विना समपण गधो को सघन वाला ह |

दशकाल दिशि विदिश हसाही। कहहसी कहा जहा परशन नाही॥ जाना चहह गढठ गात जऊ। नाम जीह जपि जान हितझ

दश, काल, दिशा, विदिशा आदि कोई ऐसा सथान नही जहा इशवर विदयमान न हो। उस परशष की गह बति को जान‍ल क लिए उसका मनन करना चाहिए ।

घालरणमायक ( ४६) परभमहिमा

जिप परकार कायय को दख कर कारण का | धवा को दख आग का ) अजमान होता ह बस ही जगत को दखकर इशधर का अरवपान किया जाता ह |

सव कर फल हरि भकत सहाड‌ । मो पिन सन‍तन काह पाई॥ मनषय जीवन का फल यही ह कि ईशवर की भकति कर,

घह भकति शरषठो क सतसग क बिना नही मिलती अथात‌ सतसग स ही मनषय रबर भकत वन सकता ह ।

अस विचारि जो कर सतसगा । राम भकति तहि सलभ विहगा।॥ एसा विचार कर जो सतसदव करत ह । उनको इशवर की

भकति परापत हो जाती ह ।

बरहम पयोनिधि मदर, जञान सत सर आहि कथामसधामथिकाटहो,भाकतमधरता जा हि विरतिचमअसिजञानमद,लोभमाहिरपमारि जयपाइसाइहारभगात,दखखगरावचार

बद रपी कषीर समदर ह। उपतको सन‍त रपी दबताशरो न घान रपी मदरा चल स मथकर कथारपी अमत को निकाला जिसम भकति रपी मिठाई भरी ह सनतरपी दवताओ न घरागय की ढाल और दवान की तलवार स मद, लोभ और मोहरपी शतरओ को जाश कर ईशवर भकतिरपी जय को परापत किया । ह गरठमी | तम सवय भी विचार कर दखलो कि इशवर भकति स ही सब साधन सिदध हो नात ह।

हानशमायण ( ४ ) परभमहिमा हज « सॉजअतीनलनी “लनाननीनी *०मक>- +-२८८८०५ “टिटकनाजटपम भाव -+->०नमिल,

जात वगि दरवा म भा३।' सामम भाक भकत सखद[३$॥

ह लचघण | इशचर स अतयनत परम करना, अथत इशतर

को आजवातसार (वदानकल) चलना ही भकति कहाती ह आर इसी भकति स परमातमा परसन‍न रहत ह ।

जिमिथलविनजलराहिन सकाई। कीटि भाति कोउ कर उपाई॥ तथा मोकष सख सन खगराई । राहन सक हरि भकति विहाई ॥ जिस परकार करोडो यतन करन पर भी विना पथवी क

आधार क जल नही रह सकता । उसी भाति इशवर की भकति

कह बिना मकति सख की पापति नही होती ।

गरत सधा सम आराहत हाइ ।

ताह माषश।वन सख पावन काइ ॥

वयापहि मान सरोगन भारी । जहि क वश सब जीव हखारी ॥ उस भकति रपी मणि क परभाव स विष अमत हो जाता

# थोर शतर मितर बन जात ह एव जिन क वशीभत होकर समपरण जगत‌ क जीव दःखी ह वह मानसिक रोग भी भकतिमान परषो को नही सतात-अथात‌ समपण सखो की परापति हो जाती ह।

राम भाफति माणि उर वस जाक । दख लव लश नसवगरहठ ताक ॥

अरननत+व नमी >नननननन- 4

शानरामायस‌ ( ४) परशमहि मा ४०5 /नीफनन+ >० ००७७३ 3 :+०--मक......-..>७०3++>मकननन-िकक- >> 33 ++सक ८००3-५५ ५+--००.

चतर शरसमाण त जगमाह€। |

ज मा लाग सयतन कराहा ४ भकतिखपी मणि क घारण करन वाल को सपनम म को

लोशमातर दःख नही मिलता! इस ससार म वही मथपय चतरा। म शिरोमणि ह, जो इस भकतिरपी मणि क परापत करन का 'यतन करत ह ।

म क कर

परम अकारा रप [दन राता । श। ह आक कः आज 65 स ४५ 2

माह कद चाहया दया घत वादा ॥ कर लो क 6०९ साह दारदर निकट नाह आवा । नह! हित ि भ लाभ बात नाह ताड छफकावा।॥

भकतिरपी मणि दिन रात परकाशित रहती ह उसक लिए दिया बतती की कछ आवशयकता नही । भकति दवारा माहरपी

दरिदर पास नही आता ओर लोभ रपी वाय उस दीषक को बझा नही सकती ।

फलहि नभवर वह विधि फला जीवन लह सख हरि परातकला॥ तथा जाइ वर मसग जल पाना। वर जामहि शश शीश हपाना। आधकार वर शवाह नयशाव ।

राम विमख सख जाविन प । हिमत अनत नगद वर रीई ः

किक जकाअ ० >++ क.

झानरामाखस ( ६ ) फरकमहिमा 2 कक“ +०३००७-ककन-- 3 + कक जी ८४६....३+----५-००-३+७-#४४नकीनकाकम बन >>“ «2२ *०५०अआमकक

नाम जीह जपि जागहि योगी । बिरति विरचि परपच वियोगी ॥ बरहष सखहि अलमवरहि अनपा । अकथ अनामय नाम नरपा ॥ माब ओर रप रहित अकथनीय जिपत जगदीशवर को

योगीजनो न मोनरप स नाम जप कर परापत किया । उसी को सासारिक परपशचो को छोडन पाल जन बरागय स अनभव कर सकत ह ।

साधक नाम जपहि लय लाय। होहि सिदट अशिमादिक पाय ॥ जपहि नाख जन आरत भारी । परिटहि कसकट होहि सखारी॥ ओ परष मन लगा कर उस परशन का धयान करत ह, वह

अगणिमादिक सिदधि को परापत हो सिदध वन जात ह तथा जिसको दःख म समरण करन स सख की परापति होती ह ।

राम भकक जग चारि परकाश । सकती चारिउ अनघ उदारा॥ आदि अनत को उजामनपावा । मतिअनमाब निगम असगावा ॥

पणयातपा, पापरहित और उदार जिजञास, साधक, आत ओर गली फसप परमातमा क भकत घन सकत ह । किसी न भी उसका अकद अनत नही पादा । वदो म कहा सया ह कि

झानरामायण ( ७ ) परददमदिमा

विमख राम सख पावन कोई ॥ वारिमिय वरहोइ घत,सिकतात वरतल | विनहरिमिजनमबतारयि,यहसिदधातअपल

चाह आकाश म बिना आधार फल फल खिल जाव, चाह परग जल क पीन स किसी की पयास बक जाद, चाह खरगोश क सिर पर सीग निकल आवद, चाह अपकार घय का नशश करद, चाह महाशीतल पाल म अगनि निकल आद, चाह जल फो विलोन स घी, और रत म स तल निकल आव, परमत परमशवर की भकति क बिना कोई ससार सागर को नही तर सकता यह सिदधानत निशरय किया हआ सपष शाखझतरो का सारथत ह ।

सोइ सवनजन गण सोई जञाता । सो महि मडन पडित दाता "

घम परायण सोह कलतराता । राम चरन जाकर मन राता॥

इस लिए वही सवजञणणी, हानी, पथवी का भपण, पडित दावा, धरमातया, ओर कल की रकषा करन बाला ह | जिसका मन ईशवर की भकति म लगा हआ ह ।

शितषा-/एणगतमा को सवञरवयापकत समझ उसकी:

आजञालसार कारय कर जीवन को आदशश बनाना ही मनषय का मरय करतवय ह ।

शानरामायल ( ८ ) अरयोषय का दशय असल जन जीन न+- "नी: विकनिन नमन तीन जिननन-ल 5 अडए& +++०फलक

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सब उदार सब परउपकारी | टविन सवक सब नर अझनारी।

सब निरदमभ धरम रतघणी। नरअर नारि चतर शभगणी॥ सबर गणजञ सत पडितजञनी | सब कतजञ नहि कपट सयानी । एक नारि बरत रतनरभारी। त मनव चकरम पति हितऋारी ॥

अयोधया क नर ओर नारी उदार, परोपकारी, बराहाणो को सवा करन छाल, पाखराड रहित धरम म ततपर, दपावान, चतर गणगी, छत आर कपट स रहित अपन २ कायया म निषण और जञाती थ। परष एक सतरी बरत वाल तथा रितरिया भी मन वचन ओर करम स पति की सवा करन वाली थी।

फलहि फलडि सदा तर कानन।चरहि एक सगगज पचानन । खगमग- सहज बर विसराई । सबनि परसपर परीति बढाई ॥

वनो म वचत खब फलत और फलल तथा हाथी ओर सिद आदि सभी पश ओर पदची बर भावका तयाग परम परवक निवास

करस थ |

दहिक दविक भौतिक तापा। राम राजय नहि काहडि वयापा | सबनर करहि परसपर परीती। चलहि सधम निरत भरति रीती ॥

ददिक ( शरीर समबनधी ) दविक ( बिजली आदि ) सोलिक ( सासारिक जीवो क दिय कपट ) दःख किसी को नही थ। सब मनषय परसपर परीति स वयवददार तथा वदानकल धरम पथ पर खलजन बाल थ ।

सपपतथ नहि. कावनिउपीरा | सब सनदर सव निरमशरीरा | सरिता सकल वह वरबारी । शीतल अपल सवाद सखकारी |

शानरामायण ( &) अयोधया का दशय >3० ५२७०... ५०७७० ५-9 “कक -+ जनक >मकनकपिनन-मनननन++-+नतम-++तक न कक पलक

सरसिज सकल सकल तडागा। अतिपरसन‍न दशदिशा विभागा । सब क शरीर निरोगय थ तथा अलयाय म किसी की रतय

नही होती थी । नदिया शीतल, निमल तथा सवादिषट जल स भरी हई, तालाब कमलो स यकत ओर समपरण दिशाय निरमल ओर शोभ- नीय थी ।

रतन जटित मणि कनक अटारी | नाना रग रचिरग चदारी । परचह' पास कोट शरति सनदर | रच कगररा रग रग वर ॥

रतन ओर मणियो स जडित सोन की अरटारी, अनक रग क सनदर काचो स ढली हई भिततिया ओर पर क चारो ओर रग बविरग कगरो स यकत सनदर कोट था। द धवल धाघ ऊपर नभ च वत। कलशमन ह शशिरविदयतिनिदत । वहमणि रचितभरोखा धराज | गरहयदद परतिमणि दीप बिराज ॥

महल इतन ऊच थ मानो आकाश स बात कर रह ह | उनक ऊपर रख हए कलश सरय ओर चनदरमा क समान परकाशित थ। भरोख मणियो स जड हए ओर घरो म परायः मणि समान परकाश करन वाल दीपक जलाय जात थ।

रथन वाटिकरा सबहि लगाई | विविध भाति कर यतन बनाई | जया ललित वहभाति सहाई । फल सदा वसन‍त की नाई ॥ गजत मधकर मखर मनोहर । मारत तरितिध सदा वह सनदर । नाना खग बालकनह जिआय। बोलत मधर उडात सहाय ॥

भरहसथी जनो न अपन अपन घरो म नाना परकार की फल- वाडिया लगाई हई थी जिनम रग विरगी मनोहर लताय बसनन‍त ऋत क समान सदा फलती सहती । भौर जिनपर मचर शबद करत तथा वाय शीतल मद खगनधित चलती थी। अयोधया क बालको न अनक पकती पाल जो मधर वाणी बोलत ओर सवतनतरता स उडत थ ।

उततर दिशि सरय‌ वह, निरमल जल गभीर । बाध घाट मनोहर, सवलप पकर नहि तीर ॥

कह' कह' सरिता तीर उदासी | वसहि जञानरत झनि सनयासी । परशोभा कछ बरणि न जाई | वाहर नगर परमरषि राह ॥

शानरामायण ( १० ) अयोधया का दशय क--..7__->+०७ ० “« तिल अविनज- कल ताज ०००६-०० कनजकडिजनन ७१ “लसलनन»मस»भ

अयोधया क उततर दिशा म गहर निरमल जलस परिपरण सरय बहतीथी जिसक घाट ऐस सनदर बनाय गयथ कि कीचड का नाम भी न रहता था तथा उसक किनार २ जञानी, मनि, सन‍यासी ओर उदासी रहत थ | बाहर ओर भीतर स अयोधयापरी जिस परकार ससजजित रमणीय ओर खशोभित थी उसका वरणन नही होसकता ।

शिकषा-धरोकी बनावट ऐसी हो जिसम आगन चौडा, पटाव ऊचा, दरवाज दवादार रह तथा एक ओर को छोटीसी फलघाडी भी अवशय लगाना उचित ह। विशष क लिय मर पिता जी की बनाई नारायणी शिकषा दोनो भागो को दखिय मलय २॥) मातर ।

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झानरामायण ( ११ ) अयोधया का दशय िज।

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यजञ स पशनोतपसति |

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शगी ऋषिहि वसिषठ बलादा । पतर लागि शभ यजञ करावा ।

राजा दशरथ जी न पतरो की परापति क लिय ऋषि »ट गको बलाकर पतरषटि यशचष कराया । जिसस शरीराम, लकषमण, भरत ओर शतरघन यह चार पतर हए ।

नास ऋरण ।

नाम करण कर भवसर जानी । भप बोलि पटय मनि जञानी ।

राजा दशरथ न नामकरण का समय जान शरजी को बलबा कमारो क शभनाम रखवाय ।

चडा करण |

चडा करण कीनह रघराई | विशरन बहत दकतिणा पाई। गर न चडा फरल ससकार किया ओर दिजो न दकतिया म

घन थानय आदि पाया ।

यजञोतवीत ।

मय कमार जबहि सब शभराता | दीनह जनऊ गर पित पराता।

गर गह गय पठन रघराई | अलपकाल विदया सब पाई ॥ जब सब भाई कमार परवसथा को परापत हए तो माता पिता

और गर वसिषटजी न यजञोपवीत किया तथा शरीणम भाइयो सहित गर क घर अरथात गरकल म पढनक लिय मय जहा थोड ही समय

म सारी विदयाओ को सीख, समाघततर ससकार करा घर कोर आय

जशानरामायण ( १२ ) अयोधया का दशय ली अल लक 2.3 हम सा करन मल हक अब ७क-+-+3०9-क-----कनज-- +-नमीकल»-मनपी मन कानक-क, कम जनम. ५3. मन-पनझ- +मलकिनन कनाननन++9 न» जाग परिननोचिक कट "७०५-+>म+3+-3+73++०----+०२७०+-+०फतनन 3५3 >»--बल-ब-.<->५->-०न,

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न ई] ५ महादवजी का बिबाह

| अ आऑडिजजज “हज ला चह औल आए आवक लक

ह कार 4 ७ 400 | ह 340 १० ४ 90 48 ० 220 20 40 2४ 2४ 20 404७ कद

वदी वद विधान सदारी |! छभग समइल गावहि नारी ॥ महादव जी की विवाह वदी वद‌ विधिस बनाई गई ओझोर सतरियो

न मडलकारी गान गाय ।

जस विवाहकी विधि शरति गाई | महा मनिन सो सब करवाई ॥ वदो म जसी विवाह की विधि बतलाई गई ह । उसी रॉति स

महामनियो न महादव जी की विवाह कराया। वद मनतर मनिवर उचचारही। जय जयजय शहर सरकरही ॥

मनियो न वद मन‍तरो को पढा और दवताओ ( विदवानो ) न जय धवनि की ।

क ८2200/00/ 04/00/0000 0020 022

न ह सीता जी का वियाह | ह €<<«

20622 22200 22222 208 इहि विधि सीय मडपहि आई | परमदित शानति पढहि मनिराइ॥ पदढि वद मनि मगल वानी ।गगन सपन करि अवसर जानी॥।

इस परकार जानकी जी जब मडप म आई तो मनियो न आननद परवक मगलवाणीस शानति पाठ तथा बद पाठ किया दवताओ अथीत‌ विदवानो न आकाश स फलो की वषा की |

राजा दशरथ की अनतयषठि | तप तनन वद विहित अनहवावा । परम विचितर विमान वनावः )। चनदन अगर भारवह आय । शमित अनक सगध सहाय।॥

राजा दशरथ क मतक शरीरको वदानसार सनान कराया और बहत सनदर विमान बना अगर चनदन आदि सगनधित दरषयो स राजा को अनतयशि की ।

शिकजञा-गरभाधान स सकर सब ससकार वदोकत रीति स करन

चाहिए।

झानरामायण_ . (“१३ ) मलषय शरीरका महतव जिन जज व उमा ल‍

2 कट 2 जा2 ह नषय शरीर का सहतव ६६ ० 8 ओर

कः उसका करतवय । ह १४ कीी क ५

(४४ ७ आई ६ भक ४5 +ह हक 2 अ

बड भागय मातप तलपावा | सर दलभ सद गरथन गावा ॥ साधन धाम मोकत कर दवारा , पाइन ज परलोक सवारा॥

सोपरतर दःख पावही सिर धनि २ पछिताय । कालहि कमहि इशवरहि, मिथया दोष लगाय ॥

। |

. यह मनषय शरीर बड भागय स मिलता ह शरषठ गरनथ ऐसा कहत ह । कि यह दवताओ को भी दलभ ह। क‍यो कि यही दह मोकत का दवार तथा यजञादि शर छ साधनो का धाम ह। इस शरीर को पाकर

. जिसन परलोक नही सधारा-व पीछ दःखी होत तथा सिर घनि २ पछितात एव काल कम ओर ईशवर को भिथया दोष लगात ह।

नर तलभरव वारिधि कह वर । सनमख मरत अलगरह मर ॥ करण धार सदगर हठनावा | दलभ साज सलभ कर पावा ।|

. यह मलषय शरीर ससारसागर का बडा ह और उस बड क पार

लगान क लिग ईशवर का अनभरहरपी अनकल पवन ह। सदगर ही करण धार ह जिनक उपदश क दवारा यह शरीररपी दढनाव दःखरपी भवसागर स सहल म पार हो जाती ह । फ

जोन तर भव सागरहि. नर समाज असपाह। सो कत निन‍द कमनद मति, आतमहनि रतिजाइ ॥

धानरामायण .. ( ११४ ) मयषय शरीरका महतव अनक 3 कनत+_>क- अल“ & ८-3; क एक« ८ पक ;क>+८० क: सम >पपक परशकरमलकी- २ कक

जो इस मनषय शरीर को पाकर भवसागर को नही तरत, यह ईशवर क अलगरहद क निनद‌क, मनद बदधि तथा आतमधातो को गति को परापत होत ह ।

पर हित परिस धम नहि भार। पर पीडा सम नहि अपमाई ॥ नर शरीर धरि जो पर पीरा । करहि तसहहि महाभवभीरा ॥

दसरो काहित करन क समान कोई धरम और दख दन क बर|बर कोई पाप नही इस लिए जो मनषय शरीर को पाकर दसरो को दःख

दत द व बारमबार नीच योनियो म जनम लत ह ।

करहि मोहवश नर अपनाना । सवारथ रत परलोक नशाना ॥ अस विचारि नो परम सयान । भजरहि मोहि ससत दःखनान ॥ भ परष अजान वशशनक पाप करत ह वह सवारथ म फस कर

पारलोकिक झखो को नही पात । इस लिय चतर महातमा काम कराध, लोभ, मोहादि सासारिक परपञचो स पथक रह भरछ करम योगी बनत ह ।

सरिता जल जलनिधि म जाई | होय अवल जिमिजियहरिपाई॥ जस नदियो का जल सागर म जाकर सथिर हो जाता ह वस

ही ईशवर को पराप होकर भन गरचज हो जाता ह ।

हानि कि जग इहि सम कछभाई भजिय न रामहि नरतनपाई॥ ह भाई शरीर धारण कर जो ईशवरका भजन नही करत उनका

जनम वयरथ दी ह।

नर समान नहि कवनित दही। जीबर चराचर याचरत जही ॥ नरक सवग अववग निमनी | जञान विराग भकति सखदनी ॥

मनषय शरीर क समातव ओर शरीर नही ह कयोकि चराचरक समपरण जीव नर दह को ही चाहत ह। यह मजपय शरीर ही नरक सवरग और मकतिकी सीढी तथा शान यरागय भकति एव सख क दन वाली ह ।

शानरामायण ( १४ ) भनषय शरीरका महतव अजनत+++ हसकन+- *०क #+नन- तन कनक >-- आऔौ-+- “+ *+३७७००५०-+०----+७--+-०५ *न‍ननल--- क‍ल‍मजब--नन--क-.

सोतल धरि हरि भभहि नजनर । होई विषय रतिमनद मन‍द तर ॥ काच किराच बदलि शठलही | करत डारि परस मणिदही ॥ नरतन पाइ विषय मन दही | पलटि सधात शठ विपलही ॥

जो मनषय शरीर पाकर इशवर भजन न कर विषयोम मन लगात ह वह मनद, बदधि पारस मणि क बदल काच को खरोदत अथवा झमरत दकर विष गहण करत ह ।

शिकषा-मलषय शरीर को पाकर भरषठ करम करना ही जीवन

कय सलाफसय ह ।

शानरामायण ( १६ ) मनषय शरीरका महतय बक-+>+-+---++० ......--->> न “अतीक तय + सकन 2िललकन 3 >ो3जक न. ३-3 2.-3---->क-ब-जक-क--क-त ७ ९७३५३७० + अमन क->-4++७०--पवाननक- ० ० तक -+*-+-५ न पनननका ० + लक अन»+-म-9++क-नवभ महक ५० - फ-नानक,

(उस उफषयठ

| सनषय शरीर क सयकर । ॥ शतर काम, करोध, लोभ, मोह, [,

बट विआलिलि> ५ काविणिवीीिटीििल लि 20 मोहन अनध कीनह कहि कही | को जग काम नचा वन जहि।। टषणा कहि न कीनह वोराहा । कहि क हदय करोध नहि दाह ॥

ससार म किस किसको मोहन अनधा, कामन वयाकल तषणा न बावला तथा करोध न हदय को न जलाया हो।

हानी तापस शरकबि, कोविद गरण आगार । कहि क लोभ विडवना, कीनह न इहि ससार ॥

इस ससार म ऐस जञानी, तपसवी, शर, कवि और पडित कम ह जिनको लोभ की विडमवना नही हई ।

शरीमदवकरन कीनह कहि,परभता बधिर न काहि। मगनयनी क नयन शर,को अस लागन जाहि ॥

लदमी न किसकी कटिल नही बनाया। परभता न किस बहिरा नही किया | अथीत‌ परभता पाकर सब कोई किसी की नही खदत ओर ऐसा कौन ह जिसको मगनयनी क नतरो का घाश न लगा हो

गण कत सननिपात नहि कही । कोन मान मद तजो निबही । योवनजवर न काहि बलकावा । ममताकहि करयश/न नशावा ॥

भारी गणो को पाकर सननिपात किस नही शराता अथात‌ कौन सावधान रहता ह। मान ओर मदस रहित होकर ससार म कौन कारय करता ह | यवावसथा क जवर न किस बावला नही किया और ममता न किसक यश का नाश नही किया ।

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. झञानरामायण ( १७ ) मनषय शरीर का महतव

मतसर फाहि कलक न लावा | काहिन शोक समीर डलावा। चिता सापिनि काहि न खाया ।को जग जाहि नवयापी माया ॥

अभिमान न किस कलझलित नही किया | शोक रपी पवन न किस दखी नही किया। चिनताररपी सरपिणी न किस नही डसा जगत‌ म ऐसा कौन ह जिसको माया न वयाप हो |

कीट मनोरथ दार शरीरा। जहि न लाग घनको शरसधीरा । सत वितलोक इषणातीनी | कहिकी मतिइनहकतन मलीनी ॥

मनोरथ मनक कीड ह। शरीर काठ क समान ह ऐसा कौनधीर ह जिस मनोरथरपी घन न लगा हो पतरषणा ( पतर की चाह ) विततषणा, लोकषणा इन तीन इचछाओ, न ससार म किसकी मति को मलीन नही किया ।

ससति मल शजञ एटनागा। स 573 दाक दायक अभिमाना | ८“ अप क पल कारर; ह जिसस नाना परकार क

दःख और एःह उतपन ८: 4 ।

पड सकल वयाघिन कर मला । तहित पनिउपन बह शला ॥ काम वात कक लाभ थअपारा | करोध पितत नित छाती जारा॥

सब रोगो का मल कारण मोह ह इसी स शरनक परकार क दःख उतपसन होत ह । काम रपी वात, लोभ रपी कफ, करोध रपी पितत

धर मनषय की छाती को जलाता रहता ह ।

परीति करहि जोतीनो भाई । उपज सननिषात दःखदाई॥ विषय मनोरथ दलभ नाना। त सव शल नाम को जाना ॥

जहा यह तीनो भाई इकटट होकर बढत ह वहा महा ठःखसवरप सकनियात रोग उतपनन हो जाता ह जिसस पराणी भर जात ह विषय का मनोरथ अतयनय दरगम ह व खब परकार क शल ह उनका नाम कौन वरणण कर सक।

ममता ददर कड हरपाई । कषठ दषटता मन छटिलाई। अहकार अतिदख दडमरआ | दभ कपट मदमान नहरआ ॥

शानरामायण ( १८ ) मनषय शरीर का महतय

ममता दाद, ईरषा खजली, दशता ओर मन की कटिलता कषठ, अतयनत दख दन वाला अहकार जलघर, दमभ कपट मद‌ और मान नहरआ क तलय रोग ह।

तषणा उदर बदध अति भारी | तजिविध इपणा तरण तिजारी | यगविधि जवर मतसर अविवका | कई लगि कहो करोग अनका ॥

तथणा बड भारी पट बढन का रोग, लोक, धन ओर पतरकी लालसा करना ही तीहण तिजारी ह | सतसर ( पराई भलाई का न दखना ) और अशान यह इज दोष क जवर ह।

इहि विधि सकल जीव जग रोगी | शोक हप भय परीति वियोगी । विषय कपथय पाइ अकर | मनिह हदय कानरवा पर ॥

जगत क सार जीवो को शोक हरष भय परीति ओर वियोग दखी करता ह | यह रोग विषयरपी कपथय स बढत और मनषयो का सो कहना ही कया सजजनो क हदयो को भी वयाकल कर दत ह

परनत व इन रोगो की ओषधि करत रहत

सदगर वदय वचन विशवासा | सयय यह न विषय कर आसा।

जो,सदगर ( शरषठ गर ) रपी थदय ओर वद वाकगो पर वि शवास कर विषय वशसना को छोड दत ह यही इन रोगो स बचन का उपाय ह। ( अथात‌ शर छ गरजनोका सतसग ओर ईशवरभकति स उपरोकत सब राग नए होजात ह जसा सतसग ओर ईशवर भकति विषय म वरशन किया गया ह।

शिजञा--काम, करोध, मोह, मद, अहकार आदि शतरओ को जीतन वाल ही जगत को दशकर परमानगद की परापत कर सकत ह ।

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जझानरामायण (१६) भरषट परषोफ लकषण कब कननन १५५ जपकन >न>-+म 5 5 +लत न ८५-८० २२२८+- उप +जअ 99००२ 7००८० ००३०० 0 3 चीनयिलल चर ल- +लज हनन नस नन०मम»मकस-क कशकीओनन5

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रा सत ( शरषठ परषो ) क लकषण हा

अ क ऋक क का आता आज करा तआसद वध दपक5 कल

बदो सत समान चित हित अनहित नहि कोय | अजलि गत शभ समन जिमि सत सरय कर दोय ॥

गोसवामी तलसीदास जी महाराज ऋहत ह | अजलि म फल लन स जिस परकार दोनो हाथ बरावर सगनधि थाल हो जात ह । वस ही हित और अनहित म जो समान चित वाल ह ऐस साध महातमाओ को म परणाम करता ह ।

सत शरसतन की अस करनी | जिमि कटार चदन आचरणी | फाट परस मलय सन भाई । निम गन दह सगध बसाई ॥

सत ओर असनतो क शरोचरण चनदन ओर कएहाडी फ समान ह दखो ? काटन पर भी कलहाडी को चनदन का वतत समनधित ही कर दता ह|

साध चरितशभ सरिस कपाशत‌ । निरस विशद‌ यणमय फलचजास । जो सहिदःख परिदिदर दरावा | वनदनीय जहि जग यश पावा ॥

सतपरषो क चरितर सनदर कपास की नाई ह। जस कपास म रस कछ नही परनत उसका फल गण अथात डोरा ह जो कपास शरमी-शीत-वषा-तथा चरखी म ओटन, धनाक यहा घनन, चरख म कतन, घोवी क यहा कटन, दरजी क यहा सशयो क छिदन आदि झनको कषठो को सहन कर वसतर सवरप म मलपय शगीर की रजा करती ह इसर लिय वह नमसकार करन योगय ह यही उपरोकत गण मदहातमाओ म होत ह .जो अपन आप थाना भाति कषट उठा कर दसरो का भला करत ह।

छद मगल मय सत समाज। जो जग जगम तीरथ राज | .. सन‍तो का समाज आननद मगल रप तथा ससार म चलन

फिरन वाला तीथ ( जिखस मजषय दःखो को पार कर मकति परापत खकल ह) ह ।

' शानरमायण ( २० ) शर छ परषोक लकषण

विषय अलपट शील गरणाकर । पर दःख दख ससध सख दखपर।। समय भतिरिषरविमद विरागी। लोभा मष ह भय तयागी ॥

साधजन विषयोस रहित शील आदि गणोक धारण करन वाल तथा दसरो क दःख म दःखी और सख म सखी होत ह। सजजन परष समदरशी शतरओ स रहित, तन धनादि का अभिमान न करन वाल, विषयो स विरकत तथा लोभ, करोध, दष, भय क न करन याल होत ह । कोमल चितत दीनन परदाया | मन वच करम ममभकत अगाया॥ सबहि मान परदआप अमानी । भरत पराण सम ममत पराणी ॥

सजजन परष कोमल चितत, दीनो पर दया करन वाल, मनवचन ओर कम स मायारददित ईशवर भकत, सबको मान दन वाल; तथा अपन आप मान रददित होत ह ह भरत ! ऐस पराणी मझ पराणो स पयार ह ।

विगत कामना नाम परायण । शानत विरकत परम मदितायन ॥ शीतलता सरलता मयतरी | टविज पद परम सत जनजतरी ॥

कामना रहित जो ईशवर को भजत ह। वह शानति, तयाग, परम ओर हरष क घर ह जो सवस शीलता, राशजता, और मितरता रखत तथा बाहमयणो क चरणो की सवा करन वाल € वही सनत 6१ भरषठ परष. कहलात ह ।

यह सब लकषण बसहि जासउर | जानई ताह सत एलत फर॥ शमदमनियमनीतिनहि डोलहि।बउर »रातय कबह नहिबोलाह

ह भाई ! उपरोकत ₹८ 5 उण जिनम विदयमान ह उनह ही परा परा शर छ उऊानो । जो श5, दम, नियम, नीति स कारय करन वाल तथा किसी स कठोर दयन नही कहत वही सनत ह ।

सजजन सकत सिध समकोई | दख पर विध वाढहिजोई ॥ जिस परकार समदर परण चनदरमा को दख बढता ह बस ही दसरो

की ददधि दख सजजन परधनन होत ह

पट विकार तजि अनघ अकापा | अकल अरकिचन शचि सखधागा॥ झपित बोध परमारथ भोगी। सतयसार कषि कोबिद योगी ॥

झानशामायण (२१ ) भ हर परषोक लचतण

सजन ही काम, करोध, लोभ, मोह, मतसर ओर अहकार इन छः दोषो को छोड कर पाप, कामना, कला, धन क लोभ, चाहना स रहित पवितर ओर सखी, सतयवादी परमारथक शाता सत और शरसत क जानन वाल पडित, योगी ह

सावधान ममता मदहीना | धीरभमकति पथ परम परवीना ॥ गणागार ससार दःख रहित विगत सनदह । तजिमम चरण सरोज परिय.तिन कह दहनगह।।

निज गरण शरवण सनत सकचाही।परगण सनत अधिकहपषहिी।। सवदा धरम करन वाल ममता ओर मद स रहित धरमशील भकति

मारग म परवीण गण क धाम सासारिक दःख ओर सन‍दह स रदित घर और शरीर स ममता न करन पव इशवर आजञा माननवाल शर छ- जन अपनी परशसा सनत इए सकचात परनत दसरो की परशसासन कर परसनन होत ह । जपतप बरत अर सयमनमा | गरर गोविनद पिपरपद परमा ॥ शरदधा कषमा मयतरी दाया मझदतामम पद परीति अमाया ॥ बिरति विवक विनय विजञाना | बोध यथारथ वद पराना ॥ दभभान मद करहिन काऊ। भल न दहि कमारग पाऊ ॥ गावहहि सनहि सदा मम लीला ' हत रहित परहित रतशीला ॥

सनतपरष जप, तप, बरत, सयम, ओर नियम करन याल गर बाहमणो क चरणो म परीति करन वाल, शरदधा, कषमा, मितरता, दया परसन‍नता, कपट रहित ईशवर म परीति करन वाल तयागी, विवक सत ओर अरसत क शानी, विनय, नमनता ओर विश स यकत, वदान ओर पराणो क जानन वाल, पाखएड ओर अभिमान रहित भल करी भी कमारग म न चलन वाल और अपन परयोजन क विना दसरो का हित करन वाल होत ह ।

बद अघात ह गिरि कस | खलक वचन सनत सह जस । घणो क बचनो को सन‍त ऐस सहन करत ह जस म सलाधार

मघो की वरषा को पवत । |

कपी निराबहि चतर किसाना | जिमि बध तजहि मोह मदमाना। जिस तरह चतर किसान खतो को नराकर ( घास हक नि-

8

कालकर ) साफ कर दत ह वस ही भछ परष मोह, मद और मानफो तयाग कर शदध दो जात ह । ह

जझानशमायण ( २२ ) शर छत परषोक लकषण द

ऊपर बरस तण नहि जापा | सत हदय जस उपज न कामा ।

जिस परकार ऊषर म जल पडन स एक तिनका भी नही जमता स दी शर छ परषो क हदय म कामना उतपनन नही होती ।

सरिता सर जल निमल सहा। सनत हदय जसगत मदमोहा | जस शरद ऋत म सरोयर का जल निरमल हो जाता ह वसही

सनन‍त सजजनो का हदय मद ओर मोदयादि स रहित निमल होता ह

रस रस शोप सरस सर पानी | ममता तयाग करहि जि भिनषानी । जस शरद ऋत म सरोबर का जल धीरशघरट जाता ह बस ही

शर छ जानी धीर २ ममता को छोड दत ह।

नह दरिदर सम दख जगमाही । सत मिलन सम सख कछनाही । पर उपकार वचन मन काया सत सहज सवभाव खगराया ॥

ससार भ सन‍तो फ मिलन क समान कोई सख ओर दरिदर फ बरावर कोई दःख नही | सनतो का सहज सवभाव मन वचन ओर कम स परोपकार करना ही ह।

सनत सहहि दख परहित लागी | पर दख हत असनत अभागी । भहज तर सम सनत कपाला | परहित सहनित विपति विशाला ॥

सजजन परष दसरो क कलयाण क लिय अपन आप दःख सहत ह ओर अभाग असन‍त (खोट मनषय) दसरो को दख ही दत ह। जिस परकार दसरो को सख दन क लिय भोजपतर का वतत अपनी छाल उतरवाता ह उसी तरह शर छ लोग पराय हितक लिय अनक परकार की विपतति सहत ह। द

सनत उदय सनतत सखकारी | विशव सखद जिपरि इनद तमारी । जस सरय ओर चनदरमा का उदय ससार क सखक लिय होता

ह। वल ही शर छ परष सब #ा कलयाण करन वाल होत ह|

शिकष‌(-सजजन परषो की पहचान उपरोकत लकषणो दवारा

करनी चाहिय ओर ऐस घरमःतपा शर छ परष क मिलन पर उनकी शिकषा अशसार चबकर झपन जीवन को आरदश जीवन वना अपन जनम को सफल करना यागय ह ।

झानरामायण

न‍ दरन (खा मधय क । जब हि

दजन ( खाट मनषयो क ) लकषण प ५ जगककयतनतवतनतमतनरकनताठकगतकनसणततनतगतन ह,

बहरि वदिखलगण सति भाय | ज विदय वाज दाहिन वाय ॥ परहित हानि लाभ जिन कर। उजर ह निषाद बसर॥

अब म दषलो को सवभाव स बदना करता ह' जो विना परयोजन ही मितर स शतर हो जात ह दरजन परायहित की हानि म अपना लाभ उजडन स परसन‍न और बसन स दःखी होत ह । जपर दोप लखहि सह साखी । परहित घत जिनक मनमाखी ॥ तज कशानरोप महिषशा । शरप अबगण धन पनी पनशा ॥

दश परष दसरो क दोष को हजारो नतरो स दखत ह ओर घत क समान दसर क उजवल हित को मकखी क समान चविगाड दत ह खतलो का तज अगनि क समान करोध महिपासर क बराबर तथा पाप झोर अवगरा रपी घन कबर क धन क तलय होता ह।

घदो सन‍त असजजन चरणा। दःखपरद उभय वीच कछ वरणा | बिछरत एक पराण हर लही । मिलत एक दारण दःख दही॥

अब म सन‍त ओर असन‍त दोनो की बनदना करता ह कयोकि दोनोही दःखक दनवालद कबल अनतर इतनाहीह कि सनत बिछडन पर पराण लत ह अथात‌ महातमाओ का वियोग दःख असझा होता ह परनत दए मिलत ही छापा मारत ह।

भल भलाई प लहहि, लहहि निचाई नीच । जस अमतपान करन स अम रता और विषक खान स मतय हो

जाती ह वस हो सजजन परष परापकार कर परतिषठा और नीच अपनी निचाई स निनदा पात ह ।

गगन चढ, रज पवन परसगा। कीचइ मिलहि नीच जलसगा। साध असाध सदन शकसारी | समरहि राम दहि गणगारी ॥

पवन क सग स घतनद आकाश म उडती ओर वही नीच गामी जल क सग स कीचड हो जाती ह। वसही साधओ क घरम तोत राम २ कहत ह और दरजनो क यहा गाली अरथात‌ कदचन बोलतह

(१३) खोट मनषयो फ लकषण कम नी लकनत--7*“ 7 “नली कल 3 लत3क‍3+-++ ० “++-“+5+>+८+ -+--००----०-+---०-----नन ७ ह जज “77+++क‍““* ७-० « हा

छानरामायण (२४ ) खोट मनषयो क लघज क+क--ा3 नमन “+ “>ककनकमनक 9-५८ ७०००४ लनानीए 7 7ए 7 गए बगल

खलन हदय अति ताप विशषी। जरहि सदा पर सपति दखी । ८४ ग $ 2 ९ ९ न (४

जह कह निन‍दा सनहि पराई। हषहि मनह' परीनिधि पाई ५ ढश क हदय दसरो की सपति दख कर जलत ल और पराई

निन‍दा सनकर तौ ऐस परसन‍त होत मानो बडी सपतति (धन)पाली |

काम करोध मद लोभ परायन । निदय कपटी कटिल मलायन ।

दषट परष, कामी, कोधी, अभिमानी, लोभी, हिसक, कपरी, कटिल और पापातमा दवोत ह ।

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झठ लना कट दना।कठ भोजन भठ चबना। बोलहि बचनमधर निमिमोरा । खाहि महाअहि हदय कठोरा ॥

दजनो का कठा ही लना भठा ही दना भठा ही भोजन ओर भडा ही चबना ह । बोली तो यह मोरो क समान मीठी बोलत द

परनत ददय पऐसा कठोर कि सपको भी खाजाय ।

परदरोही परदाररत, पर धन पर अपवाद | त नर पामर पापमय, दह धर मतजाद ॥

सतल पर सतरी गामी पराई निन‍दा, पर घनकी इचछा ओर दसरो स दरोह करन घाल तथा पामर पापमय अथोत‌ पाप रप दह धारण किय इय राकषस ह ।

लौभ ओदन लोभ डासन | शिकषोदर पर यमपर तरासन | काह की जो सनहि बडाई। शवास लहि जन जडी आई ॥

जिनका लोभही ओोढना, लोभही वयवहार शोर लोभही बछोना ह। दिन रात जो पट पजा म ही लग रहत ह। जब किलीकी भलाई सनत द तो ऐसा ऊरधवशवास लत ह मानो जाडा बखार आ गयाह

जब काह की दखई विपती | सखी होई मानह जग दपती।

सवासथ रत परिवार विरोधी | लपट काम लोभ अदि करोधी ॥

मात पिता गर विपन मानहि आपगय अरपघालहि आनहि।

फरहदि माहवश दरोह परावा | सतसडरति हरि कथा न भावा ॥

यह जब किसी की विपतति दखत ह तो ऐस परसन‍न होत ह |

0.3... ९२० >क-न-+3क७3340एन 3-५ +क+++मकरमकाक33++ नमन मनन." 3... ०५००७ नाभ3. #७2कम ५) कन नम --७-७०-००»+०»नन ता भा “जल मनन तायनीए » अनानननन | था लगाए घइइििीएओ फभणा। घी ०उक‍ककक-

पानशमायण क‍ ( श५ ) खोट मलषचोफ कस खत जन लत+। +.. आनशिज-प 3 -+ 7-7 “८ निज लक ल+++- नजजजफि न न चल लब> ०० ५५ कम

माना ससा5: क राजा होगय ! ऐस सवारथा ठग फासो, मादी, कोची तथा माता पिता, शर आर बाकष शोक निनदक आप दब तथा दसरा को भी हबान याल, अशञान क वशीमत हा दसरो स ह।8 करत ह अचछ पदपो की सगति भर ईशवर की कथा तो उनह अचछी ही नही लगती ।

दाधिनि दपक रहत घनमाही | खलकी परीति यथा थिरनाही ॥

जस बादज म बिजराी थयमकती ह और थोडी ही दरम छिप जाती द बस ही खल। को परीलि सी शिपर नही रहती ।

छ४ नदी मरि चजि उतराई। जिम थोर घन खबर वोराई ॥ शोड घनको पाकर हो खत बारा जात ह ऊस छोटी नदी थोड

जलस जतरा अलती

अकी जवास पाय जिय बयझऊ। जिमि सराजय खसत उदयमगयऊ।॥।

यय। आत भ जयाता पस सप आता ह जत अचछ राजय म दएा का कतचय ।

. जहित नीच बढाई पादा | सा परशममहि हठि ताहि नशावा । र धम अनल सभव सनभाई | तहि बकाब घन पदवी पाह ॥

मीच पएरप डिसलदडड पाल ह मिशसदद पहिल उसका ही माश दरत ह जस आणसि स उतपनत छआ छआ थादल दनदर अरसि को ही बझा दता ह ।

रज मगपरी निरादर रहह । सब कर पद परहार नित खड३ ॥ मरत उडाई परथम सा भर | पनि तप नयन किराटनह परई ॥

घलतष मारग म रिरादर स पडी रहती झोर रितय परति खबद परो की रखल सहती ह। फिर याय क साथ ऊपर को उडकर पहिल उसी को मलिन करती ह, यहा तक कि राजा क मझझ अ सक म भर जातो ह ।

सन खगपति झस साझिपरसगा बधन हिकरहिआणणकत रसगा ॥

कषि को विद गावहिअसनीती। ख सन कलह नहीमलपरीसी ॥

जञानरामायण . ( २६ ) खोट मलषयोफ लकषण कक 3 -ननण ननण+पत7+ 7४ ता“ 7-० जिन निज कनननीयनन न ल‍मन जनम ता + थक न

ह गरड | उपरोकत खब वातो को समझ कर विदवान नीयो का सग नही करत | कवि ओर परिडतो का ऐसा कथन ह कि दषट स विरोध और परीति दोभा अचछी नही ।

उदासीन नित रहिय गसाई । खल परिहरिय शवान की नाई'॥ ह गसाई ! दशो स था तो उदासीस भाव रह अरथात‌ न परीति

कर न बर। या अशदध कतत फ समान दशो को समझ छनस बात चीत ही न कर ।

क।ह समति कि खल सगजामी। शभगति पावकिपरजियगामी ॥

जिस परकार परसनरी गामी की शभगति नही होती | बखस ही दजनो की सगति स समति की परापति नही होती ।

शितजषा दजदो का सह भल कर भी न करना चाहिए।

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अथशत

& सतस डरम ह तमय ३2

मजजन फल दखिय ततकाला । काकहोहि पिकवकह मराला ॥

सन‍त समाजरपी तीथ म सनान करन का फलन शीघर ही पिल जाता ह। काक सरश बहत बोलन वाल मनषय भी पपीहा क समान समयानकल बोलन वाल तथा वशला क तलय कपरटा-

चारी मलषय हस फ समान सार को गरहण करन वाल बन जात ह ।

सनि आशरय कर जनि कोई। सतसगति महिमा नहि गोई ।

उपरोकत वात पर कोई आशचय न फर फयोदधि सतसड की महिमा छिपी नही रहती ह । क‍

जलचर थलचर नभचरनाना | जजड चतन जीव जहाना || मति कीरति गति भति भलाह। जब महियतन जहा जहिपाह।॥ सो जानव सतसड परभाऊ | लोकहवद न आन उपाऊ॥।

इस जगत म जलचर, थलचर, नभचर, एव जउठ या बतनन‍य रप

ससार क जीवो न वदधि कीरति, लबमी और भलाई तथा शभगति सतसजक दवारा ही परापत की। बदम भीपसयक वसत की परापति सतसन क हरा वताई गई ह अरथात‌ सजजनो का साथ खमपण मनोरथो की सिदधि करन वाला ह ।

विन सतसजञ विवक न होई | राम कपा वितन सलभ न सोई ॥ सतसइति मदमगल मला | सोई फलसिधि सब साधन फला॥

अिनानसलनवालकलनकीन-कककनननी पिन ता।ग*। अरफानिलनननन-+नना आ>+++>सार-भ- 8; न “परत कक न «»-ऊन "3. गाना हमा» नह 4५+ «क. -फननक-नका+ ७५». जज ज+

शायरामधयण ( श८ ) खतसकषमहारमय

बिता हतखह किपर जञान रही होता, ओर यह खतसझति ईशवर व

शी

हरी फण क दिया परापत नदी होठी | साध खडति आननद रपी दतत को मल ह महातमाओ का सिदामत इसका फ ऋर शमदम आदि का साथन इसक फल ह ।

शठ सधरहि सतसकति पाठ | परस परपति कशत छझषटाई॥

जिस परशर पारत पतथर क लगान स लोहा सोना हो जाता ह इसी परछवार सछ परष सतसगति दवारा भर छ दन जाता ह।

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ताव सवरग अपवग एख, घरिय तला इक आग । ह | ल ह कट पा -०पाह ४ दरानताहि सकल मिलि जा पवलत सतसग |

औओ राज पिता सपरग ओर मोजष की परातति स होता ह । उसकी तलना स खग क सख दो बरावर नही दो सकती ।

दीप शिखा सम यवति तन, मनजनि होसि पतग ।

भजिय रामतज काम मद, करिय सदा सतसग ॥

ह मन | दिय की बसी क समार सघी क# शरीर म पतग होकर मत जल किनत काम और मद छो छड कर सदा ईशवर का भज, आऋएण सतसग कर ।

कवर दिवस महनिधिडतम, कबह क परकट पतग । उपज विनश हान जिमि, पाय सरग कसक ॥

ह छिदध परकार बा ऋत क दिनो म कभी बडा अनधकार होखाता ह कभी सप निझल झा द तो उजला हो जाता द। उश परकार कलशतिख शान का नाश और सतलकतिल शान की परापति होती ह।

शिकषा-उतखजझ करना मरषय का परम ह । कयो कि बिना भ ८जनो 5; खज आर सदबास तथा मतरी क जोचच की सफलता पाप एड; दो सकती |

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शानरामायकत ( २६ ) मितर और कमितर अल ओ नी अननत नो ५ 3५34 ९०००-० - -क०५०-००५०3५५०० ००

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जन मितर दख होहि दखारी | तिनहि दिललोइत पातक भारी | निज दखगि रसमरजक जाना । भिनन क दखरज मर समाना ॥

जो अपन मितरो को दसी दख कर दखो नही होत उनह दखन स पाय खगता ह। अपन परशत क समान दख को रज क ठएय तथा मिशर क थोड दख को परवत क रमान जान कर इसक दर करन का यतन करना चाहिए।

जिनक असमति सहजन आई | त शठ हठकऊत करत पिताई ॥ कफपथ निवारि सपथ चल वा | गख पनगट अवरणाह दरा ॥

उपरोकत परकार की जिनकी सवभाविक ददधि नही ह व सख हठ परवक किसी स मितरता नही करत | स& मितर तो बर मारग स हटाकर »र ट पथ म चलात अर अदशरण को छिपा कर गणो को परकट करत ह ।

दत लत मन शकन धरही। बल अनमान सदा हितकरही ॥ विपतकाम कर सतणण नहा। शरति कह सत मितर गणएहा ॥

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तथा! सचदा हित जाहत और वियतति म रो भण परम करन वाल ह. वद ऐस गण वालयो का ही शरषठजन तथा मितर बताया ह।

आग कह मद वचन बनाई । पाछ अनहित मन कटिलाई ॥ जाकर यित अहिगति सम भाई , अरस कपितर परिहर भलाई ॥

जाक मन वच परम नहि, दर हराय जान। मख पर मोठ वचन, पीछ अनहित ठथा सप को गति समान

कटिलता करन दाल, उदय म कपट अर सन-बचन-स परम नही यरत घषट दमितर कहात ह ।

यम कमम 3०० ३०-५५८१७५ ५५७५ 3थ> 3३५ ॥ कारन कम कम ४ +का "तय “की "वन बमताणग 7: गए "किन अिनजनण कि आता कसमन पक,

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जशानरामायण ( ३० ) पराचीन मितरोका वयधहार | |

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यह सतरि सह निषाद जब पाई । मदित लिए परिय बनध बलाई ॥ ल फल फल भट भरि भारा । मिलन चलउ हिय हर अपारा॥

राम क बन जान क समाचार जब निषादो क राजा गह न पाय तब परसन‍न हो अपन भाई बनधओ को चला फल फल आदि भट ल कर राम क मिलन को चल ।

करि दणटवत भट धरि आ ग । परथहि विलोकत आत अनराग। सहज सनह विवस रघराई । पछी कशल निकट बठाई॥

दशडवत करक भट आग रख परसन‍त हो शरीराम का मख दखन लगा तब सवाभातचरिक परीति करन वाल राम न पास बठाल कर कशज प छी ।

नाथ कशल पद पकज दख | भयउ भाग भोजन जन लख ॥

दव घरणि पन धाम तमदारा। म जन नीच सहित परिवारा ॥

गह न कहा ह नाथ ! आप क चरण कमल क दरशन कर सब कशल ही ह म बदा भागयवान ह जो शराज आपक भकतजनो म मरी गिनती हई । ह दव ! मरी पथिवी, घन, चाम, आप का ही ह और म परिवार सहित आपका दासह। ( ऋपा कर नगर म पधारिय ) परम स भर गह क इव बचनो को झन राम न पिता की आजा

रानाई कि म नगर म नही जा सकता तब राजा गह न रामक लिय कश और कोपतनल पततो की शयपरा बबाई शर फल फल आदि पदाथ भोजनो क लिए मगयाय | इस परकार जिस समय तक »ीराम वहा रह तब तक सल परकार सवाम उपसथित रहा | इसक अननतर जब निपादराज न समा, कि भरत आ रह ह | तो हदय म द.खो हो विचारन लगा ।

धानरामायण ( ३१ ) पराचीन मितरोका वयवहार जन लनन-++++ 3+>++--++-“३3-७...+-+०क-कन--« + ५७:

कारण कवन भरत वन जाही | ह कछ कपट भाव मनमाही ॥ जो पजियन होति कटिलाई। तौकत लीनह सग कटकाई |

किस कारण स भरत बन को जात ह मरी समझ म इनक मनम कछ कपट ह यदि हदय म कयिलता न होती तो साथ म सना लन की कया आवशयकता थी |

जानहि सानज रामहि मारी । करो अकटक राजय सखारी ॥ भरत न राजनीति उरआानी ।! तब कलक अब मोवन हानी॥

उनहोन यह समझा ह कि लकषमण राहित राम को मार कर रख फरवक राजय कर । भरत न राज नीति पर धयान नही दिया १७बरष राजय करत तब तो कलक लगता। अर अब जीवन की हानि ह ।

सकल सरासर जरहि जभारा | रामहि सम रन जीतन हाग।॥

का अचरन भरत अस करही । नहि विष वलिअमियफलफर रही)

सपरण सर असर वीर भी एकतरित हो जाय तो भी यदध म राम फो नही जीत सकत। ओर भरत जी ऐसा करत ह यद अदघरज की बात नही कयोकि विष की वल पर अमत फल नही लगत ।

अस विचारि यहजञाति सन, कहउ सजग सब होह। हथ वासा बवोरह तरणि, कीजिए घाटा रोह ॥

होर सजाइल रोकह घाटा | ठाटह सकल मरण क ठाटा ॥ सनमख लोह भरत सन लह | जियत न सरसरि उतरन दह ॥

यह विचार कर गह न अपनी जाति वालो को यह आशा दी। कि सावधान हो जाओ, पतवारो को योर दो, नावडवादो ओर घाट रोक, यदध की तयारो कर भरत जी का सामना करो आर उनह बगा जी मत उतरन दो।

समर मरण पनि सर सरितीरा | राम काज कषण मगशरीरा॥ भरत भाह नप म जन नीच | बड भागय अस पाइय मीच॥

रामचनदरजो क अरथ यदध म मरना शरषठ ह कयोकि यह शरीर तो

कषण भगर ह एक दिन घषट होगा ही इस लिए इसस अचछा ओर

जशानरामायण ( ३२ ) परायीनमभिषरोका वययहार अीनक-+-++नन- - इनस बतक प नर 3 न न5> अमर >पनहरमपनक बन आज पक क अर 33 अल पल. काल ला जलजजज-नज-5 नी ता न लिन २ क‍ “7 7“7+_तह+3+ “पा ++++__++_ ४५ +-+++++++-+ जार ७७७४७७७४४०७छएएए 'अअटय

कया होगा कि यह दह शरीराम क काम म आव | भरत जी राम क

भाई ओर म तचछ | ऐलो मतय बड भागय स मिलती ह।

सवामि काज करिहो रणरारी । धव यशलहशरवन दश चारी ॥ तजह पराण रघनाथ निहोर | दई हाथ झद मोदक मोर ॥

शरीराम क लिय घोर यदध कर १७ भवनो म उजबल यश परापत कर गा। राशनाथ जी क निमितत पराण तयाय गा पसा करन स मर

दोनो हाथो म आननद क ह । जोतनस राम की परसशता और मरन स परम पद को परापति हाभी।

साध समाज न जाकर लखा । राम भकति महजासन रखा ॥ नायजियत जग सो महि भार। जननी योवन निपट कठार ॥

साथ समाज म जिसका नाम नाम नही, रामभकति म जिसकी रखा नही ऐस मसषय का ससार म जीना वयथ ह, तथा वह परष पथियवी का भार ओर माता क योचन रपी दचच क नाश करन को कठार ह | इस परकार निषादराज न शपन सचीघरम का पालन करन क हत बडी शोघरता स यदध बगी तयारी की ।

( यह शरीराम क मितर थ )

गधराजत भट भई बहनिधनि परीति बढाय । गोदाबरी समीप परशच, रह पणगह छाय ॥

धघीराम की गोदावरो क किनार शधयराज जटाय स रट हद यह अरीराम क पिता दशरथ क परममिशर थ इसस लिस शरीराम क साथ भी इनका सनह अकथनीय हआ तथा इसी परम क कारण जब रावण क वश पडी खरीता जी का जिसलाना खना तो कहन लग आह दखो |

अधथम निशाचर लीनह जाई | जिमि सलचछ वश कपिलागाई। अहह परथम तन मम बलनाही। तदपि जाय दखा बलताई ॥

दषट राजस सीता जी को लिय जाता ह जिस परकार सलचछ क सर पि पल. ह च‌ ८ शर रह घश हो कपिलला गाय दःख होती ह घल ही जानको जो ववश ह ।

शामनरामायम ( ३३ ) परालीन मिजोका वयवहार 3 नील अल - ८ -++ - ८ +-७-- 7. ०>७७३-९-कमनकना पा आजा

यदयपि पहिल क भाति सर म बल नहो ह तोभी शतर का बल दख- सा ड यह कह चला और सोठता स कहा

साता पतरि करसि ज.न जासा | करिह यात धान कर नासा। घावा करीपवत खग कस । छटपवि पवत कह जवर ॥

ह पतरि सता ! मन म मत डरो म इस राकषस का अभी नाश दारता ह यह भधराज पत पर वजञ क समान रावण पर करोध कर दोडा | ओर बोला[--

रर दएठाद किनह ही । निभययलसि नजानसि मोही। शझावतदाख कतानत सयाना | फिर दशकनतर ररव अनपाना |

अर दए ! खडा कयो यही होता मझ न जाल कर त निरत0य कस चला जाता ह काल य समान एपभरज को आत दख रावण लोटा और मज अत यान करन लगा--

कीमनाफ किखएपति हाई । ममबल जान सहित पटि सोई । जाना जरठ जयाय एदा! म कर तीरथ छाडरहि दढा ॥

कया यह मनाक परव” ३ या गहड। जो मर वज को भजननी परकार जावता ह जब जिकट आया तो जाना, दिए अर यह तो वदध जटाय ह आर ज ल वई मदठषय तीरथ पर सरन जात ह बस ही यह गरघर राज मर हाथो रपी ताय म आपन «ाश को छोडना

ता ह। ऐसा विचार रावण न कहा-- |

मम भजरल नहि जानत, आदत तपिनह सहाप। सबर चढ तो यहि हतो, जियव न निज थल जाय ॥

अर त मरी भजाओ क पराकरम को नही जानता तब। तपरिवयो की सहायता क लिय चला &(ता ह। यदि ल लडगा तो अवशय भार डाल गा।

सनत गरपर करोवातर घावा | कह झत रावण मोर शिखावा !| तजि जानकिहि कशल शहजाह | नाहित अखहाई स छोड || रामरोषपायक अति घोरा | होइहि सकल शलभम कजयोरा | उतर नदत दशानन योधा । तवहिशधर बावा करिकरोश ।

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शानरामायण ( ३४ ) पराचीन मिजञोका बयवहार ल फट अरब कम 32३ ८०925: "०६९६४ ८४ ३ सडक +: ह जक+>>+«८> पर जी लक ना अत आललि+++- ७ ““प-+५+ा ++7++->-+>--.>नननमक,

धरिक चविरथ कोनह सहिगिरा | सीतहिराख गरशनपनिफिर! दशख उठि कत शर सवाना गरथन आय काटिस घतवाना ॥

यह घनवार जटाय चला फोधघ कर राचण को ओर दोड कर चोला ह राखण ! सर ऋहना मानकर जानकी फो यहा छोड कशल परलक घर को चल जाई रामकी करोधराशमि म तश कल पतग क समान भसम हा जावगा। रावण न इसका कछ भी उततर न दिया तब धशचराज अकाय न मझ उताश शबण को ऐसा. खीचा कि वह रख स पथयी घन हि यहा, शामज क नीच गिरत ही उनहान घनाकी रपल उताए सतय नीच बिटा दिया और आ यदध क लिय लोड, इधर राचण त को उठकर घवपवाण समहाला परमन‍त राचण जा धणत एश बाहषा खडाला बल हो जदाय धरतष सहय दाह को ऋषश सवय हटाए ऋगत जिनस कछ दी दर म

रावण को सागी दद घायल होगई आर बद पीडा स वयाझल हो मजछत दागया, जब मझचछ। जागी उब राख झाथ ल दात पीस मरन का डा भपराज जाया भो सचार 5 । बहत काल तक

रायण छी झट ह इकिलश आअदयाव दत रह परनत कहा असल

मितर धरम का पतन ऋरत हए बधरराज न राम बनद क अय अपन पराणी को समापत कर दिया!

शिकषा--उलार थ मितर वा सहली बनाय बिना किसी का

कःम नही चल सकता, शापरकारो का तो यहा तक कथन ह कि मितर क बिना मसषय का खझ अयर/ रहता ह। वासतव म नर नारियो का यह आवशयक कतवय £ परनत मितर अथवा सहली बनान स पहल उसका पतथ” भाति परोतषा करलना चाहिय

प क ऋ मितर ४ र बरी सहली स “मतरी का वयाथ सख” कभी

नही मिल रझक-हसक अतिरिक जिनस सतरो कर। उसस अपनी

अापथपयत निरवाह करना ही शर छो का कदवय ह।

चलशालो शजा रायण आरा कहा झदा जटाग। अनत को सचच

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. झानशामायरा ( रप ) राज भकति |>किक तल 3 अटज।

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राप चललत अति भय वियाद | कहि न जाय पर आगतनाद | राम क चलन क सतप पएचाए लय को इतना दःख हआ जिस

का वरणन नही हो खकता ।

चलत रामलखि अयध अनाथा । विकजतोस जाग सब साथा | कपासिनधब हविधि स का ।6ि। फिर अप श पनिफिरआब हि॥

राम क बन चलत स अयाधषया अनाथ ह सब लोग वयाकल हो राभ क साथ चल लिप यह दख झपतलागर राख स बहल परकार

सबकी समझाया परणत अमवश कह मो अयाचया म रदन को गाजा सही हाला ।

लागत अवध भमयावनिमारी | मानह झालराति अधियारी । धार जनत सापर नरनारी | उरब6 इकाईएक निहारी ॥

काल राजि की ऑअचथयःरी क खपत अपाधया राम क वियोग

म बडी सवाबनी हागई वराक नरनारी धर जनत क समान एक को एक दखकर डरन लग । |

घर मशान परिजन जतबता । शवहल झीवमनह यमरदता। वागनह विपट वलि कमहिलाही | सरित पसरायर दखिन जाही ॥

घर मशान क समान, कटमबी, तथा एतनी, हित और मितर यमराज क समान साधम हान हाथ | बनाओ! म वकष आर बच

कमलाईसी तथा भयानकता क कारण नदी ऑरर ताशाब दख नही जात ।

हयगय कोटि ग पर पश खातक मोर । पिकरथाह शवसरिका सारस हख घकोर !

राम वियोग विकल सब ठाढ। जहतई पनह चितर लिखि काद ॥

झानरामायण ( 3६ ) राज भरिद

करोडो घोड हाथी मग नगर क गाय आदि पश चातक मोर पपीहा चकरवाक पना सारस हस झौर चकोर राम क 'वियोग म धयपदल हो चितर भ अकित चितर की भाति जहा क तहा खड 2 शशो |

सवहि विदयाएर कीोनह मनमाही। रामलपण सियविन सखनाही। जहा राश नई सवइ समाज । विन रघवीर अवध कहिकाज ॥ चल साथ असमनतर दटाई | सर दलभ सखसदन विहाई रामचरण पकजपरिय जिनही | विषयभोग वशकरहिकितिन ही।।

बालक बदध विहाय-ह, लग लोगसब साथ | शरीराम लदमभण ओर सीता क बिना सखनही, ओर जब वह

अयोधया स जा रह ह तो हमारा अयोधया म कया काम ? शरीराम स परम क वशीमत परजा ऐसा सोच घरक विषय भोगो को छोड रथ क पीछ २ चलदी ।

ततसातीर निवासकीय, परथमदिवस रघनाथ ॥

रघपति परजा परमवश दखी | सदय हदय दख मयऊ विशषी ॥ करणामय रघनाथ गरसाई | वगि पाय अहि पीर पराई,॥ कहि सपरम मद वचन सताय : बहविधि राम लोग समकाय॥

किय धम उपदश घनर; लोग परम वश फिरहि न फर ॥ शील सनह छाडि नहि जाई | अस मजस वशमभ रघराई ॥

परजा को परमवश बन क अनको कषट भोगन फ लिय तयार दख फरणामय भरी रामचनदर जी बहत दःखी हए, ओर व सब को मतद बचना स अनक परकार समककान लग परनत कोई भी परजाजन अरयो घया लोट जान क लिए डयत न हआ तब शरीराम बडी छिविधा म पड गय, अनत का सब लोग जब सो गय, तो शरीराम, लकषमण, सीता सहित रथ पश चढ इस परकार आग चल गय कि खोजन पर भी परवासी उनक जान का कोई चिनह न पा सक |

जाग सकल लोग भय भोर । गय रघनाथ भयो अति शोर ॥ रथकर खाज कतह नहि पावहि। रामशम कहि चह दिशिधावदि॥

मनई वारि नितरि बड जदाज । मयकविकलव बडवनि कसमाज॥

शानरामायण ( ३७ ) राज भकति किम क ५ ०-० क>नम

एकहि एक दहि उपदश | तज राम हम जानि कलश ॥ निदहि आप सराहि मीना । पिग जीवन रघवीर विहीना ॥ जोप परिय वियोग विधि कीजहा ! तौ कस मरण न मागदीनहा ॥ यहिविधि करत विलाप कलापा | आय अवधमर परितापा ॥

विपम वियोग न जाय वखाना | अवधि आश सबराखदिपराना॥

परातःकाल परजाजन शरीराम को चल गय जान, बहत दःखो हय सब वयाकलता स चऋरो ओर रथ क चिनहा को दढन लग, लकिन जब पता न पा सक तो ऐस हताश हए जस समदर म डबन वाल जहाज क यातरी अपन जीवन स-शरीराम क साथ छट हए परजाजन परसपर यह कहन लग कि शरीराम जी न हमार साथ म कलश जान कर ही हमको छोड दिया। परनत हमस तो मछलिया कितनी अचछी ह कि यह जलल अलग होत ही पराणो को छोड दती ह। ओर दम धभरीराम क विना अब तक जीवित ह, घिककार ह हमार जीवन को- हाय विधा न यदि परिय परषो का विछीह दःख दिया | तो अब मागन स मरण कयो नही दत, इस साति नाना परकार स विलाप करत हए, दःख स वयाकल परचासी अयोधया म लोट आय | ओर १४वरष पीछ शरोरामजी फिर अवग इसी आशा पर पराणो को रखो ।

शिकषा-दम सब को भी अपन गणवान‌ राजा क साथ अयोधया

छत परजा की भाति ही परम करना चाहिए ।

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पणरछ "४ ए छा छा ऊछ तार २

मनि आगमन सना जब राजा | मिलन गयउ ल विमर समाजा ॥ करि दवएडवत घनिहि रन‍यानी । निम आशरम बठारह आनी ॥

मनि विशवामितर जी का आगमन झन कर राजा दशरथ न मतरी घगगा क साथ उनका सवागत किया औरर परणाम कर खनमान पचक अपन आसन पर लाकर बिठलाया।

चरण पखारि कीनद अति पजा । मो सम आज धनय नाहदजा ॥ विधि भाति भाजन करवावा | मनिवर हदय हथ झति पापा ॥

मति क चगण धोकर महाराज न कहा महातमम आप क आ- गसनत स | कताश हो गया पनः अति सवादिषठ साजन कराय जिस स मनि क हदय म अत हप हआ |

पनि चरणन मल सत चारी ! राम दखि झनि पिरति विसार ॥ : भय गमन दखत मख शाया । जिन चकार परण शशिलोमा ॥

कि! राजा दो जागो पतर झनि क खशखा म पट गय जिनको दख कर मनि का सतसारिक धस बढ गया ओर शरीरास क सनदर मख मडल को दख कर ऐस भरसनन इए जल परण चनदरमा को दख कर खफरोर।

तब मन हरषि बचन कहराऊ । झनि अस कपा कीन‍ह नहि काऊ।॥ - कहि कारण आगमन तमदारा । कदह साकरत न लाबह गारा ॥

इसक बाद मनम गरसन‍न हो राजा न कहः ह मनि ! आपन बडी कपा की । जिस कारण आप का आता हआ दह अदा कीजिय।

असर सपह सतावहि मोही, म याचन आयऊ नपतोही ॥ अमनन समत दह रघनाथा | निशि चरवध म होवबस नाथा ॥

विशामितर न कहा ह राजन ! मझ राकषस बहत खतात ह। इस लिए लकषमण सदित शरीराम को आप मझ दीजिय जिस स

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शानरामायस ( ३& ) गर भकति 3० कम... "+ब००लम | करक वा" 3.-3+-++क.-. ०-7५ ७५-५७ ५3-आम- “जन-+-#म-+ कक" न »+ जनओ> चाणज+ ++++ ७-०3 तज3त+-3क+-+०<०क तल न ० मल अ अप कल 0 कक 23 मम, मल की लक कल लक >बपर अप जप पलर+- 9 %२+ पलक तक ८ न कररआ क

राकलसो क मारन स म सनाथ होऊ अथीात‌ मरा यजञ निरयि- इन समापत हो । अति आदर दोउ तनय वलाय | हदय लाय बह भाति [सिखाय॥. मर पराणशनाथ सत दोऊ। तम मनि पिता आननहि कोऊ ॥

राजा न अरति आदर स दोनो पतरो को बला, हदय स लगा अचछ परकार समका कर मनि स कहा। भगवन! पराण क तलय मर यह दोनो पतर ह। अवशय ही आप इनक रकषक और पिता ह ।

सॉप भपति ऋषिई सत, बहजिधि दह अशीश । जननी भवन गय पश, चल नाई पद शीश। परपसिह दोय बीर, हरपि चल मनि भय हरण ।

यह कह राजा ल दोनो परविशवामितर जी को सप अनक परकार आशीवाद दो फिर परषो म लिह क समान दोनो बीर अपनी माता स विदा हो राकषसोका नाश करनक जिय गर जीक साथ चलदिय ।

चल जात शनि दीन दिखाई * सनि ताउका करोध करि धाई ॥ एकहि वाण शाए हर जोन‍नहा दीन जान तह निज पद दीनहा

मारग म जात हव मनि ज लाइका राहनसा दिलाई जादोनो राज

कमारो को दखत ही फाव कर दाडो परतत शरीराभवन‍दर जी न शक हो वाण स उसको सार डाला ।

आयध सक समरपि क, पशच निन आशरम आनि। कनद मल फल भोजन दिय भकति हित जानि ॥

परात कहा सनिसन रघराई | निभय यजञ करह तम जाई ॥ होप करन लाग मनि झारी। आप रह मखका रखवारो ॥

माननीय गर विशयामितर जी आशरम पर भरीराम तथा लकषमण जी।को बनक कद मल फल खान को दत हय बड परम स रखत थ, ओर कछ हो दिनो म समपरण शसतर विदया दोनो भाइयो को सिखा दी। शसतर विदया म दकष हो जान पर शरीराम न मनि जी स निरभ यता परवक यजञ करन को कहा तव विशवामितर जी न अरनय मनियो क साथ यजञ आरमभ किया। शरीराम भाई सहित यजञ की रकषा करन लग ।

शिकञा-धममातमा गर की सवा तन मन और धन स सदा करनी खाहिय |

शानरामायर ( ४० ) मात भकति कक 3ग3ि- तीन ५ +लननननाओज बा डटड जज ०-5 >>

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मोहि कह माततातदखकारण । करियजतनजहिहोयनिवारण ॥ ह माता ! पिता जा क दःख का कारण कहिय। म वही उपाय

कर गा जिसस पिता जी का दःख दर हो ।

सनह राप सव कारण एह। राजहि तम पर बहत सनह॥ दन कहउ माहि दो बरदाना । मागह जो कछ मोहि सहाना ॥

ककई जी न कहा ह राम ! राजान मझ दो वरदान दन कह थ, अब मझ जा कछ अजछा लगा वही मन मागा अथात तमह १७ वरष का बनोबास ओर भरत को गददो, परनत राजा को तम बहत पयार हो इस लिए व तमस कछ कहनही सकत यह खन शरीरामन कहा-

सन जननी सोइ सत वडमागी । जोपित मातबचनअनरागी ॥ तनय मात पित पोषनिहारा | दलभ जननो सकलससारा ॥

ह माता ! वही प तऋवडभागी होता ह जो मातः पिता क बचनो म परम करन हारा हाता ह ।

ह जननी ! ससार म माता पिता का पालन पोषण करन वाल झाजञाकारी पतर बिरल ही हात ह ।

मनिगण मिलन विशष वन, सबहि भाति हित मोरि । तहि महपित आयस बहरि सममत जननी तोर॥

विशष कर बनम मनियो क दरशन आदि होनस सब परकार मरा दवित होगा तिसपर पिता की आशा और आपकी सममति ।

भरतपराणपरियपावरहिराज । विधि सवविधिमोहिसनयमखआज ॥ जोन जाह वन ऐसह का जा । परथम गनिय मोहि मठ समाजा ॥

पराणो क पयार भरत जी क राजय पान स मझ परमसख होगा ' इसी म घभ सख ह आज ईरचर खब परकार मर अनकल ह ऐसा

- शानरामायण ( ७४१ ) .. मात भकति र++ऑ >> क+०+ २५लक पलक लमी- 2-० -जन+ कब

अवसर पाकर भी जो म बदको ८ जाऊ', तो मझस अधिक कौन सख होगा। क‍

अधरकदःखगोरिविशषी । (खी) निएटविकलनरनायक दखी ॥ थारहिवातदितहि दःखभारी । होति परतोत नपरोहि महतारी ॥ शपथ तमदार भरत क आना । हत न दसर म कछ जाना ॥

ह माता | इस छोटी सी बात क दचिए पिता जी को इतता जया- कल दखकर सझ बहत दःख हान क साथ विशवास वही होता कि पिता जी क शकित होन का कारण करशल यही ह या कछ और । यह सन ककई न सरत ओर आराम को शपथ परदक ६हा ह राम ! इसक सितराय मदाशज क दःख का ओर कोई कारण नही ह | तव शरीराम जो कोशिलयादवी क समीप बज जान की आशा मागन क लिय गय ।

( शरीराम का माता कोशिलया स शराजञा मागा )

रघकलतिलजो रिदोउ हाथा। मदित गात पद नायऊ गाथा ॥ दीनह अशीश लाइजउर लीजड | भषण वसन निछावर कीनह ॥ कहह तात जननी वलिदहारी | कबरहि लगन झद मगल कारी ॥ तात जाऊ' वलिवगिन दाह । जोरन भाव मधर कछ खाह ॥

रामचनदर न हाथ जोड परसन‍न हो माताक चरणो म सिर नवाया सब माता न अशीश द ह दय स लगा भषण ओर बसतर न‍योदावर कर कहा । ह पतर ? कहो तमहार अभिषक को मगलकारी लगन कब होगी ? द तात ? शीघर सतान कर कछ इचछानकल मिपलानव भोजन कशपलो। क‍

मात वचन सन अति अनकता । जल सनह सर तरक फला ॥ सख मकरनद भर शरीमला | निरखि गमन भरमर न भला ॥ पिता दीनह जोहि कानन राज । जह सब भाति मोरबडकाज ॥ झायस दह मदित मन माता | जहि मद मगल काननजाता ॥ लनि सनह वश उरपसि भोर। आननद अमब अनगरह तोर ॥

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शानरामायण ( ४२ ) मात भकति किन ८५“ ८ “>+++ क मन जरा जी लक की ली 2 मच लकल कक कल कअक जल गज ++ अनिल नननकक नीननणा किन नल तन हट 6 पणीफियण ता 5+ बज

वरष चारदश विपिनवस, करो पित बचन परमान । आय पाय मनि दखिहो, मन जनि करपि मलान ॥

शरीराम न माता क सनहरपी कलपदष क फल, सममति क मज खखरपी मकरद क रसस यकत शर छ वचनो को सन भोररपी मन स न भला कर कोमज बाण स कहा ह माता ! पिताजी म मझ बन का राजय दिया ह जहा सब भाति स मरा उपकार होगा आप भी परसन‍न हो सझ आजञा दीजिय जिखस मरा बन म सब परकार स कलयाण हो | सनह वश आप वयाकल न होत आप की कपा स सब आनमद ही होग। ह माता ! पिताजी की आजञास १७ वरष वन म रह फिर लोट कर शीघर हो आपक दशन एव सयो कर गा |

वचन विनीत मधर रघवरफ । शरसम लग मातउर करक । कहि न जाय कछ हदय विषाद‌ | मनह मगी सनि कहरिनाद ।

भरो राम क नीति भर मधर बचन माता क हदय म बाणो क समान लग करकन लग। ह दय का दःख कहा नही जाता। जिस परकार सिह नाद सनकर हरिणी दःखी होती ह यही दशा कोशिलया की होगई ।

नयन सजल तनथरथर कापी | मानदिखाय मीन जनपापी। धरि धीरनम सतवदन निहारी । गदगदबचन कहति महतारी ।

आखो म जल भरि आया शरीर थरथर कापन लगा ओर ऐस वयकल होगई जल माजा खय क मछलो । फिर घोरज धर पतर का मख दखकर गददकरणठ स बोली |

तातपितहि तम पराणपियार | दखघदित नित चरिततमहार। राजयदनकह शभदिनसाधा । कहउनान वनकहि अपराधा ॥

ह पतर ! तम तो पिता क पराणो क समान पयार थ तथा व तमहार चरितरो को दखकर नितय ही परसन‍न होत उसी स राजय दन को यह शभ दिन नियत किया फिर ह पतर ! किस अपराध स तमह वन जान को कहा।

निरखि रामरख सचिवसत, कारण कहउ बकाय सनि परसग रहिमकजिमि, दशावरणि नहि जाय॥

शानरामायरण ( ४३ ) मात भकति

तब शरी रामचनदर जी का इशारा पाकर समितरा क पतर अभि नन‍दन न सब कारण कह खनाया जिस सनत ही कौशिलया ग ग क समान चप होगई ।

धम सनह उभय मतिघरी । भई गति साप छछददरकरी | राखो सतहि करो अनरोध। धमजाय अर बध बिरोध ॥

धरम ओर सनह क कारण कौशिलया दवी की गति साप छछ दर कीसी होगई व विचारन लगी कि यदि सनह ओर हउ स राम को वन न जान द तो धरम की हानि ओर भाइयो म विरोध होगा।

वहरि सममभितियधम सयानी | राम भरतदोउ सत समजाती॥ सरज सवभाव राम पहतारो । वोली बवन धीर धरिभारी। तातजाऊ बलिकीनहउ नीका | पित आथस सब धमम टीका ॥

फिर पतिबरत घरम को विचार तथा राम ओर भरत दोनो पतरो को समान जानकर सरल सवभाषर स कोशिलया न धीरज घर कहा ह पतर ! वलिहारी जाऊ तमन शरचछा किया, पिता की आजा मानना सब धरमो म भरषठ ह।

पितबनदव मातबनदवी । खगमग चरण सरोरह सवी। अतह उचित नपहिवनवासत‌ , वयविलोकि हियहोत हरास‌॥

वनक दवता ऋषि और मनि तमहार पिता बनदवी अरथात‌ ऋषि मनि पतनिया तमहारी माता तथा खगमग चरणो की सवा करन वाल हाग बदा यदयपि बदधावसथा म राजा को बानपरसथी

होना उचित ह परनत इस समय तमहारी सकमार अवसथा को दखकर मरा चितत घबडाता ह ।

बडभागी वन अवध अभागी । जो रघवश तिनक तम तयागी | जोसत कहो सग मोहिलह । तमदर हदय होय सदह ॥

ह राम तमहार चल जान स वन वडभागी और शअरयोधया

अभागिनी ह ह पतर जो म तमस कह कि मझ सग ल चलो तो तमहार मन म यह सदह होगा कि सतरी को पति सवा करनो चा हिय पतर क सग क‍यो जाय ।

पत परम परिय तम सबहीक। पराशपराण क जीवन जीक ॥

झानरासमायण ( ४७ ) मात भकति वकडर 5७०

ततमकहह भातवन जाऊ' । म सनि बचन बठि पछिताऊ ॥ ह पतर ! तम सबक पएरमपरिय पराणो क पराण तथा समपरण

जता क ओऔवन हो किस २ सग लोग | तम जो कहत हो कि माता म घन जाता ह यह सन भ पछिताती ह ।

यह विचारनहिकरहहट, ऋठ सनह बढाय | मानि मात करनात वलि, सरतविसर जनिजाय ॥

परनत झठा परम बढा हठ नही करती। वलिजाऊ' ह पतर ! माता क नात को जानकर मरी खरत मत भललाय दीजो |

वयपितर सब तमहि गरसाई । राखहि पलक नयनरी नाड। अवधि झऋखबपरिए परिजनमीना ; तम करणाकर धमम घरीना ॥

ह एतर | दववा ओर पितर तमह ऐस रखख' जस पलक नतरो की रकषा ऋरत ह। ( चहएइवरष ठगी अधि वह जल ओर परिय परितःर पछली )। तन करणा की खानि ओर धरमयरी क धारण

5 बाल रो। अस विधारि सोइ करह उपर | सवदरिजियत जहि भट हआई ॥ जाह सखन वन! पलि जाऊ। कारि अनाथजन परिजनगाऊ' ॥

एसा विचार कर बह उपाय करना जिसस सबक जीत ही आकर 'मलो | ह 75! वलिजाऊ कषमबिया तथा अयोधया को अनाथ कर तम सख (वक बन म जाऋश निवास करो ।

जिस सपय रामचबदरजी बनस लोटकर आय उस समय सबस पहिल ककयो झ घर गय ।

परभ जानी ककयी छामानी। परथम दास शरह गय भवानी ॥ ताहि परवोधि बहत छख दोनहा | तव निज भवन गवन परशकीनहा।।

महादवजी न दारयती स कहा ह प!वती ! रामच-दरजी न यह जाना कि ककयी बहत लजजित हई ह इस कारण सबस पहिल उस क घर को ही गय और अनक परदार स जञान र कफई को परसनन कार कीशिजया जी क पास गय ॥

शिकषा-धम मा रापकी दरद परतयष को अपन माता एव पिता की आशा का पालन तन मन ओर घन स कर उन का रचा भकत बसना चाहिय |

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समाचार जब लकषमण पाय । वयाकल विलखि बदन उठि थाय । कपथलक तन नयन सनीरा । गह चरण शरति परम अधीरा।

रापचनदर जी क वन जान क समाचार जब लचमण जी न सन तो वयाकल होऋर रामचनदर क पास गय उस समय उनका शरीर

काप रहा नतरो म आस भर थ इस परकार परम स अधीर हो उनहोन रामजी क परो को पकड लिया !

कहि न सकत कछ चितवतठाड | मीनदीन जन जलत काड ॥ राम बिलोकि बनध कर जार। दह गह सब सनतण तोर॥

फिर चप चाप उठकर शरीराम जी की ओर दखन लग। लदमण कमार ऐल वयाकल थ, जल जल स वाहर फकी छई दीन मछली । शरीराम लदमण को राजवभव तथा अपन शारीरक सख दःख की चिता स अलग हाथ जोड खड हए दख बोल---

मात पिता गर सवामि शिख, शिरपर करहि सभाय । लहर लाभ तिन जनम क, नतर जनम जग जाय ॥

ह लकषमणी माता पिता शर ओर सवामी की शिकषा को जो सिर पर धारण करत ह अरथात‌ विनय परवक उनकी आजा का पालन करत ह उनही का जनम सफल ह तथा आशञाका उललहन करन वालो का जनम जगत म निरथक ही ह ।

असजिय जानि सनह शिष भाई । करह मात पित पद सवकाइ॥ भवन भरत रिप सदन नाही | राउ बदध ममदख मन भाही ॥

पलसा जान कर ह भार माता पिता की सवा करो यही मरी

शिदषा ६ घर म भरत और शतरघन भी नही ह, महाराजा वदध ओर मर दःख स दःखी ह ।

शानरामायण ( ४६ ) भरात भकति

म वन जाऊ तपहि ल साथा । ह ह सव विधि अवध अनाथा॥ गर पित मात परजा परिवार । सवकईह परइ दसह दःखभार ॥

जो म तमह बनको साथ ल चल तो शरयोधया सब भाति अनाथ हो जावगी, ओर गर पिता माता परजा परिवार सब को बडा दःख होगा ।

रहह करह सब कर परितोष | नतरतात होइ ह बड दोष ॥ रहह तात असननीति तिचारी । सनत लपषण भय वयाकलभारी॥

भाई तम यहा रह कर सबको समझभात रहना नही तग ह तात | बडी तराई होगी ऐसा सोच तम घर पर ही रहो | लकषमण जी यह सन बहत दःखो हए ओर जयो तयो धीरज घर ओऔरीराम स बोल-

दीनह मोहि शिखनीक गसा३ई | लागि अगप अपनी कदरा३॥ नर वर धौर धरम धर धारी। निगम नीति कत अधिकारी ॥ धरम नीति उपदशिय ताही । कीरति भति छगति परिय जाही ॥ मन करम वचन चरण रतिहोई । कपा सिनध परिहरिय छिसोई॥

ह महाराज ! आपकी शिकषा अवशय माननी ह | परनत जो जन कवल धरम, कीरति और एशवय क चाहन वाल ह। वही आप क वद पव नीति स यकत उपदश मय वचन पालन क अधिकारी ह. म तो किसी परकार क बसव की इचछाशन कर कवल आप क चरणो की ही सवा करना चाहता ह असत यद आप मझ! सचचा सवक जानत ह तो मझ साथ ही ल चलिय ।

करणा सिनध सबनध क, सनि मदवचन विनीत । समभाय उरलाय परभ, जानि सनह सभीत ॥

करणा सागर रामन शरषठ भाई क उपरोकत कोमल तथा नजर घचनो को खन सनह स हदय स लगा कर कहा।

मागह विदा मात सनजाई। आवह वगि चलह वन भाई ॥ ह लदचमण ! जाओ अपनी माता स विदा लक शीधर आशरो और

मर साथ वचन चलो |

शानरामायण ( ४७ ) शराद भकति इक कन>नन१क+--०-०-१५५-..००७०-००५० -५००७५७-०५ ८7] ०००»+ ७+ ० निज 5 अली ज न बन पनककन-न- “कल विन न >+०++ ७» +-मनबक > +०+>---“०+-०००० बन जज फानिन वि 5

( समितरा का लकषमण को उपदश )

धीरण धरड कअवसर जानी ! सहज सहद बोली मदवानी ॥ तात तमहारी मात वदही | पिता राम सब भाति सनहो ॥

जिस समय समितरादवी न लकमएफ वचनो को सना उस समय यदयपि उनको अतयनत दःख हआ | तो भी धीरज घर कोमल वाणी स कहा ह पतर तमहारी माता जानकी ओर सब परकार स तम स परम करन वाल शरीराम तमदार पिता ह ।

अवध तहा जह राप निवास । तहइ दिवस जह भान परकाश ॥ जोप सीयराम वन जाही। अजध तमहार कान कछ नाही ॥

जिस परकार जहा सरय का परकाश होता ह वहा ही दिन होता ह उसी परकार जहा राम निवास कर वहा ही अवधपरी ह जो सीता ओर राम वनको जात ह तो ह पतर तमहारा अयोधया म कया काम अथात तम भी साथ जाओ

गर पित मात बनध सरसाई ! सइ य सकल पराण कीनाई ॥ राम पराण परिय जीवन जीक । सवारथ हित सखा सबही क ॥

.. गर, पिता, माता, भाई, दवता सवामी इनकी पराणो क सम-न सवा करना चाहिए राम तो पराणो क पयार ओर जी क जीवन तथा सवारथ रहित सबक मितर ह ।

अस जिय जानि सग वन जाह | लह तात जग जीवन लाह॥ ऐसा विचार ह पतर | तम अपन जयषठ शराता राम क साथ जा

कर जवन को सफल करो ।

भरि भागय भाजन भयड, मोहि समत बलि जाऊ । जो तमहार मन छाडि छल, कीनह रामपद ठाऊ ॥

मर सहित तम बड भागय क पातर हय ( म वलिहारी जाऊ ) जो तम न छल छोड कर राम क चरण कमल म मन लगाया।

राग रोप ईपा मद मोह | जानि सवपन इनक वश होह॥ सकल परकार विकार विहाई। मनकरम वचन करह सवकाई ॥

झानरामायस ( छ८ शवात भकति 0 0४७७ारााााणााणााात

ह पतर! राग, कोघ, ईपा मद मोह आदि विकारो दोशो को छोड कर मन वचन कम स राम की सवा करना।

तम कह बन सब भाति सपास | सग पित मात राम सियजाश। जहि न राम वन लहहि कलश | सत सोइ करह यह उपदश ॥

मात चरन सिरनाय, चल तरति शडित हिय। वागर विषभ तराय, मनह भाग मग भागवश॥

राम ओर जानकी तमहार पिता ओर माता क समान ह इसलिय तम सब भाति बन भ झखी होग । जिस परकार रमचनदर कन म कलश न पात ह पतर ? वही काम करना यही मरा उपदश ह, इतना सन लकमण कमार माता छ चरण म सिर नवाकर शॉफऊित हदय स ( शकित हदय का यह कारण कि कही माता फिर मन न करद ) इस परसार चल जल कठिन जाल को तोड कर मय भाग जाता ह ।

शिकजञा-छमितरा क समन ही परतयक माता को अपन पतरो क लिय घरम का उपदश करना एव बडी का पजय बनाना उचित ह ।

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भरलजो का सचया सथाग

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छल विहीन शति सरल सवानी । बोल भरत जोरि यगयानी॥ भरी भरत जी न हाथ जोड छल रहित पवितर सीधी वाणी स

कहा । द माता ! कौशिलया

जो अप मात पिता गरर मार । गाय गोठ महि सरपर जार ॥ जो भघ तिय वालक वध कीनद । मीत महीपति माहर दीनह ॥

जो पाप माता, पिता, गर, क मारन, गाय, गोठ ( गोशाला ) पथिवी, बराहमण और दवताओ क मनदिर जलान स होता ह| तथा जो पाप सतरी और बालक क मार डालन स लगता ह वह सथ मझ; लग जो मरा मत राम को बन भजन का हो । यदि धरीराम को वन भजन म मरी थोडी भी सममति हो तो

ज पातक उपपातक अहही । कम बचन मन भवकवि कहही ॥ त पातक मोहि होउ विधाता । जो यह होय मर मत माता ॥

मन वचन कम स उतपनन होन वाल भ ठ कपट आदि उपपातक झौर वदमहतया, सखरापान, चोरी आदि सब पातक ईशवर मझ लगाय

जपरि हरि हरि हर चरन, भजहि भत गण घोर । तिनकी गति मोहि दउ विधि, जो जननी मत मोर॥

ह माता यदि शरीराम को बनोवास दन म मरी सममति हो तो डपासनीय इशवर को छोड जो दसरो की पजा करत ह । उनकी जो गति होती ह वही मरी भी हो ।

वचहि वद धरम दहि लही। पिशन पराव पाप कहि दही ॥ कपटी कटिल कलह परिय कराधी । बदविदषऊक विशव विरोधी ॥ लोभी सपट लोलप चारा | ज ताकहि पर धन पर दारा ॥ पातरऊ म तिन कर गति घोरा | जो जननी. यह समभति मोर;

जञामरामायण ( पए० ) भरतजी का सचचा धयाग

यद क बचन घाल धन लकर बद पढान याल कनया बचन याख धरम क दहहन वाल, छगली खान वाल, पराया पाप कहन वाल, कपरी, कटिल, कलश करन हार, करोधी, वदनिनदक, ससार क वि- रधी, लोभी, ठग, लालची, लोलप, चचल, पराय घन और सतरियो को तकन वाल की जो गति होती द घहदी मरी हो, जो मन भीराम को बत भजन को कहा हो।.. क

ज नहि साध सग अनराग | परमागथ पथ विमख अभाग | ज न भनहि हरि नरतल पाई | जिनहि नहरिहर सयश सहाऔ॥ तजि शरति पथ वामपथ चलही | वचक विरचि बष जग छलही॥ तिनह की गति शकर मोहि दज । जननी जो यह जानो भऊ ॥

ह पजनीय माता ! जो म इस भद को भी जानता होऊ, सो अ छ परषो स परम न करन वाल परमारथ स विमख अभागी, ओर मनषय शरीर पाकर दशवर की आजञा न मानन तथा- उसकी महिमा को न सनन एव वद मारग को छोडन तथा ठगो का वष बना ससार को छलन वाला की जोगति होतो ह वही मरी भी हो ।

मन वचन करम कपा यतन कर दासर म सत मातरी । उर वसत राम सजञान जानत परोति योर छल चातरी॥ ह माता ! म तो मन वचन ओर करम स रामचनदर का दास ह

यह सवय सब क हदय की जानन वाल सनही तथा छल ओर चतराई क जान न याल ह ।

शिकषा - तपसवी भरत क सदश हमार भारतीय भाई यदि नयाय

परवक अपनी समपतति का निवटारा सवय ही कर लिया कर। तो ७ दालतो म धयरथ चघनादि का बयय ओर रसार म अपयश क भागी तो न वन?

खदकक हक

शानरामायय ( ४१ ) कक

समाचार तहि समयसनि, सीय उठी अकलाय । जाय सास पद कपल यग, बदिवठि शिरनाय ॥

शामचनदर क वन जान क समाचार जब सीता जी न छझन तो दःखी हो सास क पास आकर चरणो म सिर मवाय बठो ।

दीनह अशीश सास मदवानी, शरति सकमारि दखि अकलानी । बटिनमित मखशोचति सीता, रपराशि पतिपरष पनीता ॥ सास न फोमल घाणी स अशीस दी। अतयनत खकमारी

सीता की राम क सग जान की इचछा दख वयाकल होगई। उस समय रपराशि पति का पवितर परम धारण फरन घाली सीता जी सोचन लगी ।

चलन चहत वन जीवन नाथा, फरहिसकती सन डोइहि साथा । कीतनपराणकि कवल पराना, विधि करतव कछ जात न जाना॥

जीवन क नाथ रघनाथ वन को जाया चाहत ह सो जान कौन स सकत स उनका साथ होगा कया शरीर ओर पराण अथवा किवल पराणो स ही रघनाथ का साथ होगा विधाता का करतव कछ जाना नही जाता | इस परकार फ विचार करत हए--

मजजविशोचन मोचतवारी । घोली दख राम मरहतारी तातसनह सिय अतिसकमारी | सासससरपरि जनहि पियारी ।

सीताजी क उजजवल नननो खर आस निकलन लग यह दख राम-

चनन‍द की माता न कहा ह राम ! जानकी शरति हो सकमारी और सास ससर तथा कटशबियो को पयारी ह ।

पिता जन+भपाल मणि, ससर भानकल भान ।

पति रविकल करव विपिन, विधयण रप निधान ॥

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मपनि पतरवथ परियपाई' । रपराशि भण शील सहा३'। नयनपतरि करि परीति वदाई । राखउ पराण जानकिहि लाई ।॥ सोइसिय चलनचहत वनपताथा । आयस कहा होह रघनाथा।'* चनदरकिरणि रसरासि चकोरी । रविरख ननसकी करिमिजोरी ॥

राजाओ म भरषट जनक जिनफ पिता सयय सरश सजसथी महाराज दशरथ जी जिनक ससर एय सययवशी कमल क खिलान याल चनदररपी, गण की खान राम जिबक पति-तथा रप की राशि गण और शील शिरोमणि जो सीता मरी पतरवध ह-जिसको आज सक मन नयनो की पतलली तथा पराणो क खमान रखा ,ह-यही मथिली तमहार साथ घन को जाना चाहती ह इसम तमहारी बया आशा ह भला जो चकोर चनदरमा की किरण को चाहती ह यपदद सरय क सनमख अपन नतरो को कस कर सकती ह।

बनहित कोल किरात किशोरी । रचीविरचि विषय सख भोरी ॥ पाइन कमिजिमिकठिन सवभाऊ | तिनहि ऋलश न काननकाऊ॥ फतापसतिय कानन योग । जिन तपहत तजा सब भोग ॥

ह राम ईशवर न विषय खख स भोरी कोल शरौर किरातो की कलयाआओ को वन क लिय बनाया ह-कयोकि पाषाण क कीड साप डिचछ आदि क समान जिनका कठोर सवभाव ह उनह मन म कछ भो कलश नही होता अथवा जिनहोन तप करन क लिय सासारिक भोगा को छोड दिया ह ऐसी ऋषि मनि पतनिया घनवास करन क गय हाती ह ।

अस विचार जस आयस होई । म शिख दऊ जानकिददिसोई ॥ जोसिय भवन रहइकह अ वा। मोहि कहहोद पराण अवलबा ॥

.. यह विचार जसा कददो बसी म जानकी को सौखद। यदि जानकी घर रहगी तो मझ पराण रखन को सददारा हो जावगा ।

सनि रघवीर मात परियवानी | शील सनह सधा जन सानी ॥ राजकमारि शिखावन सनह | आन भाति जियननिकछ गणह॥

शील और खलनह रपी अमत म सनी माता की परियवाणी को

शानरामायण ( पर ) . चति भकति $+ -७-७७-० ५-० ७२५७-4७! (नकल जनक व अ४ ७००३०: गन मन- + ०2 “मनन पक जन न “७3++ “अलना--+++ “+ 72» पकमीतक++नम+-+७--२०८. : “३3५ -कनपनन- वफीडिन लव «न +-- ।॥34:2 20263 काआट॥ ७७

सनफर रामचनदर न कददा ह राजकमारी ! मन म कछ और न समझ कर मरी शिकषा मानो । द

झापन मोर नीक जो चहह । वचन हमार पान घर रहह | झारयस मोरि सास सबकार । सवविधि भाषिन भवन भलाई ॥

जो अपना और मरा भला चाहती हो तो मरा कहा मान घर रहो ओर मरी आता.स साख की सवा करना घर रहन म ही सब परकार की भलाई द।

यहित अधिक धरम नहि दतना। सादर सासशवसर पद पजा ॥ जबजब मातकर हि सधि मोरी | हाइहि परम विकल मतिभोरी ॥ तबतव तप कहि कथा परानी | सनदरि समकायह मदव!नी ॥ कहो सवभाव शपथ शत मोदी | सधखि मातहित राखो तोही ॥

कयोकि सास ससर की सवा करन क बराबर दसरा धरम नही ह। ऊब २ माता मरी सधि कर ओर परम स उनका चितत वयाकल हो जाय तब २ कोमल वाणी स परानी कथा कह २ कर समभाना ह समखि ? सवभाव स सवोगनध करक कहता ह कि माता क दवित क कारण ही तमह यहा रखता ह ।

म पनिकरि परमाण पितवानी । बगि फिरवसन समरखि सथानी । दिवस जात निह लागहि वारा । सनदरि सिखवन सनह हमारा॥

म पिताजो की आजञा का पालन कर ह समखि ! शीघर ही लोद कर आऊ गा ह सखनदरि ! दिन जात दर नही लगती अतएव हमारी शिकषा मान घर रहो ॥ द

जो हठऋर ह परमवश वामा । तोतम दख पावह परिणापरा ॥ बानन कठिन भयकर भारी । घोरधाम हिमवारि वयारो ॥ कश कटक मग ककर नाना । चल बपयाद विनपदतराणा । चरण कपल मदमज तमहार । मारग अगम भमिधर मार।।

भमिशयन वलल‍कलवसन, अशनकद फलमल ' तकि सदा सबदिन मिलहि, सपय समय अनकल ॥

कषानरामायण ( ४४७ ) -... पति भकति नजर ही “+कपीनननात+ इतना वन ५ न

नर झहार रजञनीचर .करही। कपट बषविधि कोटिक धरही। लागईइ अति पहाहकर यानी । विपिन विपति नहि जाय नखानी ॥।

शहह भवन असहदय विचारी। चनदरवदनि दख कानन भारी ॥ ओ तम पम स इल समय हठ करोगी तो अनत म दःख

पाओझोगी । वन का. मारग अतयनत कठिन ओर भयदवर ह तथा मारग म बडी घप, जाडा, पाती और याय स दःख भिलगा। मारग म करश, काट, ओर ककर होत ह ओर तमद विना जत क नग परो खलतना पडगा तमदार पर उजजवल और कोमल ह रासता ऊचा नीचा होगा तथा बड २ पवत बड वढाव उतार क पडग। भमि म खोना, दकत की छाल पहरना, फल, मल ओर कनन‍द क भोजन घहद भी सब दिन नही किनत कभी २ मिलग। ह पयारी! वन की विपसतिय। को कहा तक कह । मनषया फ खान वाल अनक परकार क कपट वष बनाय रादयस वन म रहत ह । पहाड का पानी बडत लगन वाला होता ह । इन बातो को विचार ह चनदरवदनि ! तम घर ही रहो।.. ह

पराणनाथ करणायतन, छनदर सखद सजान।

तमविन रघकल कमनदविध, सरपर नरक समान ॥

मात पिता भगिनी परिय भाई | परिय परिवार सहदद समदाई॥ सासशवसर गरसनन सहाई | सत सनदर सशील सखदाई॥ जहलगिनाथ नहअरनात | पियविन_ तिय. तरणिह त तात । तनधन धापधरणिपर राज | पति बिहीन सब शोक समाज ॥ भोगरोग समभषण भार । यमयातना सरिस ससार॥ पराणनाथ तमविन जग पाही | मोकह सखदकतह कोऊनाही ॥ जिय विनदह नदी विनवारी । तसिय नाथ परष विन नारी ॥ नाथसकल सख साथ तमहार | शरद विमल विधवदन निहार॥

ह पराणनाथ ! ह करणानिधान खखसागर ! ह रघदश [रपी चवल क खिलान वाल चनदर ! मझ आपक बिना अयोधया ती क‍या सरपर भी नरक क समान ह ॥ मातो, पिता. परियभाई, पयार कटमबी ओर दितकारी सास, सझर, गर, सजञन सहायता करन पाल

शामर म.यण .. ( प ) पति भकति कन--ज--०+५७-+५+ +७०-->० हज वजन जप अत >जन+-3-मन-3० चक

पतर, शीलवान,|खखदन घाल, ह सवामी ! जहा तक नह और नात ह य सब पति क विना सतरी को सरज स भो अधिक गरम ह तथा शरीर, धन, घाम, पथिवी, परका राजय पति द बिना सब शोक का समाज द ! पति क बिना भोग रोग क सदश गदन बम क हलय झोर ससार यमर यातना:क समान ह ह पराशनाथ ! तमहार बिना जगत म ऐसी कोई वसत नही जो मझ सखी कर सक।

खगमग परिजन नगरवन, वलकल विमल दकल |

नाग साथ सर सदन सम, पणशाल सखमल ॥ बनदवी वनदव उदारा। करिह सासशवसर समसारा ह॥| कशकि. शलय साथरी सहाई । परशसग मजमतो जतराई॥ फदमल फल झ परिय अहार । अवध साध सत सरिस पहार. कषणकषण परशपदकमल विलोकी रहिहो मदितदिवस जिमिकोकी। घनद:ख नाथ कह. बहतर। भय विषाद परिताप घनर ॥ परभ तियोग लवलश समाना । होहि नसवमिल कपानिधाना ॥

, भसजियजान सजान शिरोमनि । लइय सगमोहि छाडियजनि |

विनती बहत करोका सतरामा। करणामयउर अतयामी ॥ . राखिय अवध जो अवधलगि, रहतजानि य परान | _

दीनबध सनदर सखद, शील सनह निधान ॥ मोहिमगचल तन होइहिहारी । कषणचलाण चरणसरोन निहारी | सबहि भाति पिय सवा करिहो । मारग जनित सकल शरमहरि हो॥

खगझग कटमबो, नगर फ समान वन, बलकल रशमी घसतरो क सलय, और बन की परण कटी दवताओ क घर क समान सखदायक यन क दधता और दवी ( ऋषि मनि ओर उनकी पतनिया ) सास ससर क समान रकता करन वाल तथा पततो की- साथरी ( शयया ) कामदव की सज क तलय होगी। बनक कनदसल और फलो का आहार ही अरमत लटश तथा पहाड अवध क राजमहलल की अटारी

क समान होगी । परतिकञण आपक खरण करमलो को दखकर म इस परकार परसन‍म रह गी जस दिन म खकवा अर चकयी । ह परीसम !

भय विषाद और परिताप क भर टम न बहत छठ परनत ह रपा-

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जञामरामायण ( ह६ ) पति भकति आन शीनिनाओ “अजय लता जम-3+१>म८क+ नकननन- +-+फमक कक ..3५५#०+न-+त+>--+०- ७ ५ अनीनानन ॥त-3+-3-+--वनन>+--न--कीननकनन+---30 “३७-५७५५७-कक-५+-+>बकलननाा कल 5 ॥

निधान व सद मिलकर क भी तमहार वियोग रपी दःख को यराबरी नही कर सकत | ऐसा जानक द जानन धालोम भरषठ ! आप मझ सग ल चलिय यहा मत छोडिय। ह सथामी ! आ :स यहत कया विनती कर आप दयामय, अनतरयामी और मर मन की जानन वाल ह दीनवनध ! झाप सनदर खख क दन वाल तथा शील ओर सनह क पातर ह अतएव जो १४ वरष तक परा पराण झवध म रहता जानो तो छोड जाइय नही तो सग ल चलिय म परो चलत नही थक गी | कयोकि परतिकषण आपक चरण कमलो का दरशन दोता रदहगा। ह पराणपरिय ! सब परकार स आपकी सवा कर गी ओर आपक मारग चलन क परिशरम को हर गी।

पायपखारि बठतर छाही। करिहो वाय मदित मनमाही ॥ अमरन सहित शयामतन दख । कह दखसमउ पराणपति पख ॥

जब आप सनदर वकष क नीच बठग तो चरणो को धोय परसनन हो हवा कर गी। पसीन क विनद सहित तमहारा शयाम शरीर दख कर मझको दःख नही होगा।

सममहि ठणतर पल‍लवडासी। पायप लोटिह सबनिशि दासी ॥ घारार मदपरति जोही | लागहि ताप वयारिन मोही ॥

बराबर भमि म वततो क कोमल पशच विचाकर यह दासी रात को पाव दावगो। बारमबार आपकी कोमल मरति को दख मझ गरम हवा भी नही सतावगी॥

कोपभसग पोहिवितवनि हारा | सिहवरध हि जिमिशशक सियारा। म सकमार नाथवन योग। तमहि उचित तपमोकह भोग ॥

जस सिहनी को खरगोश ओर गीदड नही दख सकत वस झापक सग मझपर कोन दषटि डाल सकगा । मर समान कया आप सकमार नही ह कया म भोग करन और आपही तप करन योगय ह।

एसह बचत कठोर सनि जोनहदय विलगान |

तो भरभविषप वियोग दख, सहिह पामर परान ॥ पस कठोर बचन सनक जो मरा हदय तो आप क असकत

क‍ ह वियोग कौ कयरा यद पार पराण सहन करग अथीत नही। आपका. वियोग हीत ही मरी पराणान‍नत हो आवगा। झस कहिसोय -विकल मशभारी | बचन वियोग नसकी सभारी। दखि दशा रघपति जियजाना । हठराख राख नहि पराना॥

पसा कद जानकी बडी बयाकल हई और शरतयकष वियोग की. कौन कह घचन क वियोग को भी न समहार सकी । यह दशा दख राम न मन म जाना कि हठ करन स जानकी भाण नही रखखगी।

कहउ ऊपाल भान झतनावा । परिहरि शोच चलऊबन साथा। नह विषाद कर अवसर आज । बगिकरह वनगमन समाज ॥

अत एव कपासागर शामन कहा ह परिय | लो ऐसा ह तो शोक को . तयाग दःख को दर कर शीघर वन चलन की ठययारी करो ।

कहि परिय बचन परिया समभाई । लग मातपद आशिप पाई। वगि परजा दख मटह आई । जननी निदधर विसर जनि जाई ॥

रामन पयोर बचनो स सीता को समझा कर माता. क चरणो म परयाम किया झाशौश- दकर माता न कहा--शीघर ही आकर परजा का दःख मटना और निठर माता को मत भल जाना ( सीता जी न भी सास क परो का छकर अपन पति क साथ घन यातरा की )

द शिकषा-महारानी सीता क समान परतयक स‍तरी को अपन पति

दव की सवा तन और मन स करनी चाहिय तभी वह सती कद ला सकती ह

... झ; फ

!

शानराभायश. (४४ .) .... भारि धरम

५ औनारि धरम ;: छह४०- ४४ 2 मल कर शव २६5६

- पारवती की माता न कहा-_

करह सदा शकर पद पजा |नारि धरम पति दव न दजा ॥ ह पतरी पावती ! शिवजी क चरण कमलो की सवा करना कयो

५ बा

कि सतरियो का पति दवी दवता ओर उसकी सवा करना परमधरम ह

( सीता की माता का उपदश )

_ होइह सतत पियहि पियारी। चिर अहि बात अशीश हमारी॥ सास शवगर गर सवा करह। पति रतव लखि आयसअनसरह अति सनह वश सखी सयानी । नारिधम सिखबरहि मदवानी ॥

: ह पतरि सीता ! सदा पिया की पयारी रहो ओर बहत दिनौतक तमहारा सहाग रह यही हमारी आशीश ह। साख सखर की सवा झोर पति की आजञा पालन करना ही तमहारा धरम ह, इसी परकार अन‍य सखिया न भी नारी धरम को शिकषा दी ।

( अजलसइया का सीता जञी को उपदश )

कह ऋषि वध सरल मदवानी । नारिधम कछ वयाजवखानी॥ मात पिता भराता हितकारी । मित सख परद सन राजकमारी ॥

ऋषि पतनी अनलसइया कोमल वाणी स नारि धरम का वरणन करती हई योली, ह रालकमारी ! खनो माता पिता भाई और हित यह सब योगयतानसार खस दन वाल ह परनत-

अधित दानि भतो बदही | अधम हो नारि जो सवन तही ॥ धीरज धरम भिनतर अर नारी । आपति काल परखिय चारी॥

ह जानकी ! सवामी अननत झख को दन वाला ह इस पर भी जो सतरी हापन सवामी की सवा नही करती वह शरम ह। धीरज अम मितर ओर सतरी की परीकषा आपतति क समय होती ह।

शातरामायण € पर & ) ४० मारि धरम जरा ३0% अ 0 ६८ आजिआ: कर +- _उपयलनबभपाइशलब कम नल... हज पान-नकलकट लीविलजसितण,

हझ रोग वश जड धन हीना | अध वधिर करोधी अति दौनो॥ “ऐसह पति कर किय अपमाना | नारि पाय यमपर दखनाना॥

.... बड, रोगी, मरख, दरिदरी, अधा, चहरा, करोधी, और दःखी पति का भी अपमान करन स अनक दःख मोगन पढत ह।..

एक धरम एक बरत नमा | काय वचन मनपति पद परमा ॥ जग पतिबरता चार विधि भहही। वद पराण सनत असकहडी॥

काय वचन और मन स पति क चरणो म परम करता ही सथियो का बरत नियम और धरम ह। ह मथिली वद पराण एव शर छजनो क. कथनाशसार ससार म चार! परकार की पति वरताय होती ह। .«

उततर क अस वस मनपमादी । सपनह आन परष जगनाही ॥ मधयम परपति दखहि कस । भराता पिता पतर नि जस ॥

उततम पतितनता सतरियो क तो मनम यह बात बसी रहती ह कि दसरा परष सवनत भ भी जगत त म नही ह किनत‌ सब सतरी ही ह ओर

तिही परष ह। मधयम पतिबरतः पराय पतियो को अपन भाई पिता ओर पतर की नाई दखती ह ।

धम विचारि सपकमि कल रहही | सोनिकषठतियशन तिअसकहदी॥ विन अवसर भय तरह जाई | जानह अधम नारि जगसोर॥

धरम बिचार कर अपना कल समझ क रहती ह। व निकट ह ऐस ही बदी म कहा गया ह जो अवसर न मिलन स तया कल ओर गर जन क भय स अपन घम म रहती ह वह जगत म अधन सतरी

पति वचन परि पति रतिकरई । रोरब नरक कलप शतपरह ॥ जो अपन पति को ठगकर परपरष स परीति करती ह वह सौ

कप तक दःखो को भोगती ह ।

. विन शरम नारि परम गति लहग | पततिबरत धम छाडि छलगहई॥ ति पतिकल जनमि जह जाई। विधवा होय पाय तरणाई ॥ जो छल छोड क पतितरत घरम का पालन करती ह वह घिना

परिशरम परम गति को परापत हो जाती ह। और पतिस परतिकल आ-

शानरामायण , ( ६०. ) भारि अरम

चरण करन वाली सतरिया दसर जल‍म म यवा घसथा परापत होत ही विधवा हो जाती ह । नारि पतितरत जहि पर पराही । तहि परताप नित अमर टडराही ॥

जिस घर म पति बता सतरी होती ह उसक परताप स दवता डरत ह। सनि जानकी परम सख पावा | सादरतास चरण सिर नावा॥

अनसइया क उपदशको सनकर सीताजी बहत परसशन हई और आदर पवक अनसइया क चरण कमलो म सिर नवाया।

शितता-अलखइया जी क कथनालनसार एव भरति और समतियो म बतलाय हए ( जिसका सगरह हमारी बनाई गरहसथाभरम म सब स अचछा ह ) घम पर चलना सतरी मातर का परमधरम ह।

५४/४/६ < 204

हानरामायण ( ६३ ) म०काराणकोलमभसाना

सनन‍दोदरी का रावण को समझाना।

दरिषिकरषरफरकरिडिकिकरफिकिकिफकिककी. चरणनाह शिरअ चल रोपा। सनह बचन पिय परिहरि कोपा ।

घरणो म सिरनवाय आचल फलाय मनदोदरी न कहा ह. गरीतम | कोय को तयाग मर वचन सनो ।

नाथ बर कीज ताही.सो | बधिबल जीति सकिय जाहीसो। तमहि रघपतिहि 'अ'तर कसा | खलखदयोत दिवाकर जसा ॥

द सवामी | घर उसी स करना चाहिय जिसको बदधि और बल स जीत सको | तमम और रामम इतना अतर ह जितना जञगन‌ और सरय म ।

झतिरल मधकटमभ जिनमारा । महावीर दिति सत सहारा । जिनहोन महावली मध कटम दिरणय कशयप हिरणयाकष और

शाजा वलि आदि को मारा ह उनस शतरता करना उचित नहो।

_रामहि।सोपह जनकी, नाय कमल पदमाय | सतकई राजय दशवन, जाय भजह रघनाय ॥

जानकी रामचनदर को सॉएदो और उनक चरण कमल म सिर मवाय पतरको राजय द वन म जाकर ईशवर का भजन करो ।

नाथदीन दयाल रघराई । वाघो सनमख गय नखाई ॥ चाहिय करन सो सब करवीत । तमर सरअसर चराचर जीत ॥

ह नाथ | रघनाथ जी सदा दीनो क ऊपर दया करन वाल तथा शरणागत क पालक ह। ओर दखो वतो कया चाघ भी सनमख जान स नही खाता । तमह जो करना था वह सब कर थक। समन दवता राकषस और चराचर सब जीत लिय.अथवा जो तरमह म करना चाहिय था वद भी तमन कर लिया ॥ क‍

. बद कहहि असनीति दशानन । चोथपनहि जाय नपकानन | वास भजन कीज तह भता । जो करतो पालन सदहरता ॥

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; जानरामायण ( ६२ +$ म"०का रा० कोसमभाता कक ककबरक- 3१ >कब>न-ब> पका +।. "कि काओऋण+

>न‍सनटकणणमना,..#- जन वनननल न +>>++- + न ०» “००अ>-+ २+---००+> -*+०*__ब|,

ह सवामी ! वद‌ म ऐसो नीति कही गई ह कि चोथपन म राजा वन म जाकर तप कर इसलिय ह नाथ ! जो ससार का उतपनन पालव और नाश करन वाला ह उसका.भजन अब वन म जाकर कीजिय ।

असकहि लोचन वोरिभरि. गहिपद कपित गात । नाथभजह रघबीर पद, ममअहि वात न जात ॥

ऐसा कह मनदोदरी न रावण क चरण पकड लिय नतरो म जल भर आया ओर शरगीर ऋायन लगा । जस. तस फिर कहा ह

(थ ! रघनाथ जो क' चरणो का भजन करो जिसस मरा सहाग नजाचव।

पिय तहित जीतब सगरामा । जाक दतन कअस कामा || कॉतक सिपलाधि तब लका | आयउ कपि कहरी अशका ॥ रखवार हतिविषिन उजारा | दखत तमहि अकष जिनमारा।

जा? निगर जहि कीनह सकतारा | कहा गया वलगव तमहोरा 4 ह सवामी जिनका दत कौतक स ही समदर को लाघ लका म.

चला आया और रखवालो को मार वगीचा उजाडा, तमहार दखत दखत अरदतकपार को मार डाला नगर को जला भसम किया, उस समय तमहारा चल ओर घमएड कहा गया था--यह सब दखकर क भी तम उनको जीतन की इचछा रखत हो।

अरवपति धथागाल जनि मारह। मोरकहा कछ हदय विचारह। पति रघपतिहि मननजनिनानह | अगजगना थ अतलवलमानह ॥

ह सवामी ! अब बथा गाल मत बजाओ मर कह को हदय स स विचारो। ह परीतम रघनाथ जी को साधारण मनषय मत जागो यह पवत, बचत ओर दवताओ ( विदवानो ) क सवामी तथा महावला ह । ३

वाण परताप जान मारीचा । तास कहा नहि मानह नीचा ॥ जनकसभा अगणित महिपाला । रहउ तहा बलगवब विशाला॥

उनक बाण का परताप सारीच जानता था तमत लीचता स उल का कहा नही मातरा दख जनक को सभा म अनगिनत राजाओ क

झानरामायण .. ( ६३ ) म०का रा० कोसममाना 2 ३० थम कम 2 कल मय मन जकल छक जप अल शक मत जमीनी क कब. न मीलस तन मी कल की पी कम कट अल जत लक कर पल कम? न र अजित का कक अ

घीच तमभी वल और गरव स परण विदयमान थ तो भी तम स परषारथ न हो सका और रामन--

भजि धनष जानकी विवाही । सक सगराम जीतको ताही। झरपति सतनाना वलथोरा । राखा जियत आख इक फोरा ॥

. अभजष तोड जानकी को वयाहा अब उनही राम को कौन जीत सकता ह। इनदर पतर जयनत न जाना कि इनम चल थोडा ह। उसकी दिठाई पर पराण दरड न दकर एक आख फोडदी ।

शपणखा की गतितम दखी । तदपि हदय नहि लाज विशषी॥ शपणखा की गति तमन दखी तो भी तगहार छदय म कछ

लाज नही आतो।

वबधिविराध खरदपणहि, लीला हतउकबनध । ... वालि एकशर मारउ, तहिनानह दशकतर ॥ . विशध को मार खरदषण का वध किया, कवनध को खल स

मार डाला। वाली का पराण एक ही वाण म हर लिया ह पति ! उनक परभाव को जानो।

जहिजल नाथ बधायड हला । उतर कपिदल सहित सवला। बरणीक दिनकरकल कत | सचिव पठायउ तब हित हत ॥

जिसन कौतक स सपदर को बाध लिया, ओर बनदरो की सना सहित सवल पवत पर टिक ह दयामय उनही र/मन तमहार हित क लिय अपना मनतरी भजा ॥

सभा पराक जद तब वल मथा । करि वरथ मह मगपति यथा ॥ अगद अनमत अनचर जाक। रणवाकर वीर अतिबाक ॥

सभा क यी ब म उसन तमहारा बल ऐस मथा जस हाथियो दो समह को सिह | रण क बाक वीर अगद‌ ओर हनमान जिसक दास ह ।

तहिकई पिय पनि'र नर कहह | दधा मान ममतामद गहह । अहह कतकत राम विरोधा । काल विवश मनउपज न वोधा॥

ह सवामी, बथा मान समता तथा अहकार क वश दवो उनह तम

. झानरामायण ( ६४७ ) भ०कारा० को समकाना कल कत-+०3 + जजबलल तल ४“ अजाडल+ी+++

साधारण भजषय कदद रदद हो, काल क वशीभत होन स ही भीराम स बर करन की हठ करत ओर किसी फा कददना नही मानत | किसी न सतय कहा ह--

कालखदड गह काह न मारा । हर बरम बल बदधि विचारा ॥ निकट काल जहि आव गसाई | तहि शरमहोय तमहारी नाई॥

काल किसी को लठिया लकर नही मारता फवल बदधि, चल, धरम ओर विचार को हर लता ह | ह सवामी ! जिस क निकट काल झाता ह तमहारी तरह उस भरम हो जाता ह।

दशसत मारउ दहउ पर, अजह' परि पिय दह । कपासिध रघतीर भजि, नाथ विमलयश लह ॥

दखो तमहार दो पतर मार, पर जलाया अबभी कछ सममभो अब भी मरा कहा मानो ह नाथ | रपासागर राम का आशरय ल निरमल यश क भागी बनो |

शिकषा -महारानी मनदोदरी की भाति परतवक सतरी को अपन

पतिदव क लिय यथा समय परतयक विषय क हानि लाभ को विनय परवक समझाना उचित ह ।

रदकिक-

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शॉनरामाण (४५ ) सीताजी और राषर ३७०" फकवकर-+« "कद +-कक+कन-अ- मन + ५ 4०-33 6 की 406 -4024>%+%+- कल‍कक)-क५०-न की “४० क)००क०-> 7-0 - "पयध

सीताजी ओर रावण ह 2:८4 7200 24 “२22 :“/4 :: 20 पर,

नाना विधिकहि कथा सनाई | राजनीति भय परीति दिखाई। ... शबण न सीता जी को नाना परकार को राजनीति भय और गरीति स मोहित करना चाहा परनत सती सीता न कहा । क‍

कह सीता सन यती गसाई। बोल बचन दषट की नाई । ह गसाई ! तमहार यह बचन दषटो क समान मालम पडत ह

तब रावण निमन रप दिखावा । भ३ सभीत जब नाम सनावा। फह सीता धरिधोरन गाठा । आयगय परभ खलरह. ठाढा ॥

,. _तव रावण न अपना असली रप दिखात हए नाम बताया जिसको सन सौता जी कछ डरी पन धीरज घर कटा खडा रह दश ! रामजो अभी आत ह ।

जिमिहरि बधहि छदर शश चाहा । भयसिकालवश निशिचर नाहा। . वायसकर चहखगपति समता | सिध समान होय करिमि सरिता॥

ह राततस ! जस सिह की सतरी को कोई छोटा खरगोश काल क वश हो पकड ऐस ही त मरी इचछा करता ह। कया फौआ एरड की बराबरी ओर नदी समदर की समानता कर सकती ह। खरिकिहोई सर धत समाना । जाह भवन निज सन अजञाना । सनत बचन दशशीश लजाना | मनम चरणवदि छखमाना ॥

करोध वत तव रावण, लीनहसि रथ बठाय । चलउ गगन पथ आतर, भयरथ हाकिन जाय ॥

.._ क‍या गधी कामघन क समान हो सकती ह । ह अजञानी राजा अपनी कशल चाह तो सीधा घर को लोटजा । यह सन राघण बहत लजित हआ और मन हो मन मथिली को परणाम कर परतयकष म फरोध दिखात हए वल पवक सीताजी को रथ म बिशा आकाश भाग स लका को चला गया

आानरामायण | धध ) सोताजी और सपयख 'ऋबक-२अब७....----०. &28:%4+कबान--+>5मजकमकलकी 7. “3:

( अशोक बाटिका म सनदर वख आाभपणादि पारण कर रानियो क साथ राबण क जान और झनक बात कहन पर मथिली न कहा)

मन दशमख खदयोत परकाशा | कव ह कि नलिनी करहि विकाशा। झसमन समझि कत जानकी | खलसपरि नहि रघवीर बानकी ॥

- “ह रादण ! कही पटयौजन क परकाश स कमल खिल सकता ह। अरथात‌ इसी परकार मर कमल रपी नतर राम रपी सयय को दख कर दी खलग, तक पटवीजन स नही । ह मरख तक राम क घाय

की सधथ नहा ह

शट सन हरि आनसि मोही । अरध०१ निलजज लाज नही तोही ॥ ह सख जिसक वाणक डरस त मझ सन म हर लाया । द नीच

निलजज ! हम लाज नही आती ।

आपहि सन खदयोत सम, रामहि भान समान | परष बचन सनि काटिअसि, बोला झति खिसियान ॥

झगयन आप को पटवीजना ओर राम को सरय क समान समन रायण न तलवार निकाल खिसिया कर कहा |

सीता त मम कत अपमाना । काटो तव शिर कठिन कपाना ॥ नाहित सपदि मान ममवानी । ससरखि होत नत जीवन हानी ॥।

ह सीता ! तन मरा अपमान किया इस कारण म कठिन तलवार स तरा सिर काट लगा इसलिए ह खमखि या तो शीघर मरा कददा मान नही तो तर जीवन की हानि होगी अथात‌ तभ मार डाल गा। यह सन जानकी जी न कहा ।

शयाम सरोज दाम समसनदर । परश धन करि कर समदशकषर॥ सो धरन कठकि तब असिघोरा । सन शठ असपरमाण परणमोरा॥

.. ह रावण! शयाम कमल की माला और हाथी की स ड क समान शामचरदर जी की भजाए मर कएठ म पडगी या तरी तलवार ॥७६२४

. शिकषा-पतितरत धरम की रकषा क लिय पर परष स भी धरम

परवक घातालाप करन म हानि नही ।

शानरामायल ( ६७ ) मा०का रा० को समभाना कर कल

१०८४६७००४६४/ “०६/२०६४/४४६४४--२४६४४/*४६७४/१४६४४४६४४२४६४७क

माराच का रावण का समकाना ८4५०4५०२५७०२५०२००-२५००२००२५०२५००२०७०७

>ब अरक क 2७७ ५8.» ०3७७७) ---+ “नफ>काम»»+-अवकराक०म,

मनि मखराखन गयडउ कमारा । वितर एरशर रघपति मोहिमारा ॥ शतयोजन आयउ पलमाही | तिन सन वर किय भलनाही ||

जब कमार अयसथ( म शरीराम विशवामितर क यजञ की रखयातो करन गय थ उस समय उनहोन मर विना फर का एक वाण मारा था जिसक लगत ही म यहा आपडा, इसलिय पस परतापी जन सव घर करन म कभी मलाई नही होगी ।

जिहि ताडका सबाह हति, खडउ हरको दणड । खगदपण तरिशिरा वधउ, मनन कि झस बलवद ॥

जिसन ताडका, ओर खबाह को मार जनकराज क यहा धनष तोडा खरदषण तथा तरिशिरा को यमपर भज दिया क‍या यह काम साधारण मनषयो क ह ।?

रा शरसनाम सनत दशकपर | रहत पराण नहि मम उर अतर १ जाह भवन कल कशल विचारी । घनत जर। दीनदति बहगारी ॥

राम क नाम मातर स मझ इतना भय होगया ह कि को कोई रा अचजर को भी कहता ह तो मर इदय म पराण नही रहता इस लिय . तम भी कलकी कशल घिचार कर घर को चल जाओ ॥

हलपानजी का रावण को उपदश ।

भारपति निशिचर फहि अपराधा। कह शठताह न पाणकी बाधा ।। राखण न कहा ह बनदर ! तन किस अपराध स राकतसो को

मारा ? कया तझ मरन का सय नही ।

. हरको दणड कठिन जइ भजा । तोहि सपत नपदल मदगजा ॥ अर र।बण ? जिनहोन कठिन धनष को तीडा और लमहार

सहित सब र,जाओ का मद चर कर दिया।

शानरामायण.. ( ६४ ॥$ ह० का रा० को उपदश +--3७क०-++-+०+>+++कन‍कलक, 0 बत-डट िवकनननट न - +०७+

रदषश विराध असवाली । वध सकल अतलित वलशाली ॥ उनहोन साधारण नही किनत खर, दषण, विराध और वाली

इन सब मदहावलियो को नाश किया ह । उनका म घलवघान दत ह त उनकी सननीको छल स हर लाया ह सो उस द'ढनको यहा आया ई ह राकगसपति ! पहिल तमहार राकषसोन मझ मारा तब मन अपन शरोर की रकषा क लिय उनह मार डाला।.... द

विनती करो जोरि कर रावण । धनह मान तजि मोर शिखावन॥ दखह तम निज कलह विचारी । भरमतजि भजह भकत भयहारी॥

ह रावण ? म तक स भी विनती करता ह कि मान को तयाग कर मरी शिकषा मान और अपन कलका विचार कर। तम बरहमा क पर पोत पलसतय क नाती विशरवा क पतर हो इस लिय तम शरम को. छोडकर भकतो क भय दर करनहार रामकी शरण म जाओ । द

तासो वर कबह नहि कीज | मोर कह जानकी दीज॥ . और रामचनदरजी स शतरता तयाग सीताको फरदो।

.. परणतपाल रघबशमणि करणासिध खरारि। गय शरण परशन राखिह तव अपराध विसारि ॥

भरीरामचनदरजी दीनोकी पालना करन वाल रघवशियो क शिरो मणि और कपासागर ह यदयपि उनहोन खरदषण आदि को मारा ह तो भी तम यदि शरण म जाओग तो तमहारा अपराध कमा करदग । रामचरन पकज उर धरह | लका अचल राजय तम करह | ऋषि पलसतय यश विमल मयका | तहिकलमह जनिहोसिकलका॥

राम क चरण कमलोका अआशरय लकरही तम लकाका अरचल राजय करसकत हो | चनदरमा क समान पलसतयऋषि क उजजवल यश को कलकित मत करो ॥

मोह मल वहशलगद, तयागह तम अभिमान | भजह राम रघनायकहि, छपासिनध भगवान ॥

ह रावण ? तमहार हदय म जो अभिमानमछक मोह ह जिसका फल लमह दःख मिलगा इस लिय उस अभिमान को छोड रामचनदर‌ जी पा आभय लो । द

-झानरामायण/_. (.६६ ) ह० का ख० को उपदश

यदपि कही कपि अति हितवानी । भकति विवक विरतिनयसानी ! बोला विहसि महाअभिमानी ) मिला हमहि कपि बडगर जञानी॥

. इसपरकार यदयपि हनमानजी न भकति, वरागय और .नीतियकत हितकारी वचन कह तो भी अभिमानी रावणन हसकर कहा कि थद बदर बडा शरशञानी मिला ह क‍

मतय निकट आई खल तोही | लागसि अधम सिखावन मोही ॥ उलटा होह कहा हलनमाना। मति शरम तोरि परगट म जाना ॥

अर बनदर ? नीच होकर मझ शिकषा करता ह मालम होता ह कि तरी मतय निकट आगई ह। यह सन हनमरान दोल ह राचतस- पती ? जिसकी मतय निकट होती ह उसकी बदधि म शरम होजाता ह यथारथ म तमहारी सतय निकट आगई पर परम क. कारण जान नही सकत ।

शितषा-समय पडन पर छोट भी बडो क लिय धरमासकल नमन

निवदन अवशय किया कर| और बडो को भी उचित ह कि यदि उनका कथन ठीक हो तो उस मानल |

झानरामायण ( ७० ) सशयस० और वि०का परापति दरथ2++ब>-क “3५-3० ७-५०-५ ->०नन>+तननन+ +निीनीनान+ 3० जल+० 3७५3 +> कक. कनजा ललटकाण। “अप नकिण 5 7 न निननलनाओ 'न‍न‍क | -वनलननओ - ०

2६ "दरद ए5 ०025 वरड कए वार दी वयदव८४४ ०६

$ सथय सहायक और उनस वि नयकी परापति '# छह ५32 8७)४८० »५२०७०)०८० ६४०३४०७)४८० ५८३१४७४८० २ ३४६७४०८६ ६६

यदधचतर म जिस समय सनदर रथ म बठकर रावण आया उस को दखकर विभीषण न रामचनदरजी,स कहा ।

नाथन रथनहि तनपदतराना । कहि वि।ध जीतव रिपबलवाना।।

छनह सखा कह कपानिधाना | जहि जयहोय सोसयनदनआना ॥ ह नाथ ! न तो आपक पास रथ ह न पादतराण (जत या मोज)

म कवच । भला यह बलवान शतर रावण छिस परकार जीता जावगा तब कपानिधान रघनाथ न कहा ह मितर ! जिसस जय परापत होती ह वद रथ दसरा ही ह सनो ।

शौरज धीर जाहि रथ चाका | सतयशील हढ धवजा पताका ॥

बल विवक दम परहित धोर | कषमा दया समता रज जोर ॥ उस रथ म शरता और घीरता क दढ पहिय लग ह सतय ओर

शी लता की दढ धवजा ( पताका ) ह | बत, जञान, इनदरियोका दमन आर परोपकार यही चार घोड ह और व घोड कमा दया ओर समता की रससी स बच ह।

इश भजन सारथी सजाना | विरति चमर सतोष कपाना। दानपरश बधि शकति परचडा | वरविजञान कठिन को दणडा ॥

जिसपर ईश भजनरपी सारथी बठा ह। वरागय की ढाल और सतोष की तलवार धघरी ह। दानरपी परशा, वबदधिरपी परचणड शक, उततम झञानका कठिन धनष ह ।

सयम नियम शिली मखनाना | अमल अचल मन तणसमाना ॥ शभरनरथो' का तयाग, ओर वदविहत अरथो का पलनरपी नियम

डस क वाण ह निमल ओर अचल मन तठरकस क समान तथा बराहमणो का सतकार ही अभद कवच ह ।

. रखा धरम 'य असरथ जाक । जीतन कह न कतह रिप ताक ॥

आतरामायल , ( ७१ ) सशचस० ओर वि०की परापति

महाघोर ससार रिप, जीत सक को बीर | _ जाक असरथ होय हट, सनह सखा मतिधीर ॥ ह मितर ! जो परष ऐस धरम क रथ म बठा ह उस जीतन को

कोई शतर नही अथः/त‌ वह सबको जीत छका। ह सखा । जिनक ऐसा रढ रथ ह वही सगरामभमि म विजय परापत करसकत ह अनयथा महाधोर ससाररपी शतरकी कौन वीर जीत सकता द ।

._ शिकषा--उपरोकत सचच सहायको दवारा हो हमारी वदिजधय

होसकती द ।

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शक पजना ० ९५० ८+

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शातरामायण ( ७२ ) करमगति कनन+ नाजक- बन जल कल 7 ४ लिए ज ह। “शा ज स‍नासिसज ह कर अनिल अल +लवपीबक >-- ०कलअिवननन+ ०]. पाती «४४७०9

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क 'ककमगोत ह+ ४॥ ५५क छा 58 8555 $छछ कर 2!

करमपरभान विशव करि राखा। जो जस करहि सो तसफल चाखा।॥। परभ न जगत म करमपरधान कर रकख। ह जो जसा करता ह

उस बसा दी फल मिलता ह ॥ ४२६ ॥ क‍ मकर

जनममरण सब सख दख भोगा । हानिलाभ परिय मिलन वियो गा॥

काल कमवश होहि गसाई | वरवस रात दिवस की नाई॥ . रात और दिनक समान जीना, मरना, खख दःख, भोग, परिय

मिलन, वियोग, हानि लाभ यद सब काल ओर कम क अनकल

होत ह ।

( शरीपददारान दशरथ का तपतवी सरवन क पिता का

शाप वरणन )। एक समय झन परिय सयानी। मगयाकी मर मन आनी ॥ सब मगया कर साज सजाई। गयऊ वनहि सग सन सहाई ॥

राजा दशरथ न कहाकि,ह पयारी कौशिलया | एक समय मर मन म शिकार खलन की आई तब ठाट बाट क साथ सना लकर म बतकी गया ।

रनि समय वतस वन तीरा | बठो सरवर तट मति धीरा ॥ ताही समय लिय घट करम | सरवन आय जल हित सरगम ॥

रातरि क समय वतोक वनकर तीर सरोवर क किनार बठा था कि उसी समय घडा हाथ म लिय तपसवी सरवन जल भरन क लिय आय ।

त‌बा जलम -जवहि डबायो। भयो शबद मर मन आयो। जानयो मग तब धनष सभारा । लकषयवध करतहि उर मारा ॥

हीजरामाीयलण | ॥ ः ६ ७३ ) कमगति कशमककक3.>. -क- ७ >०ककममनकनन --+ हक ज--+कन-मनन जज ७०>३2क३->७० ८+ यन--३७+क-%०-०००8 का ००७३०)» <-4०क- ००क--- ५०७०४ 3 सम काणकण.धाडीस०+ २०4 इ>०७५ »»म किक पा» ७७० मकर कक ५८ परपलकम-वीनक- पजगल3-“ल+ पन-न० कट

इसक त यो दशत क शमद को खन कर फग आन मन शबद जदी धॉप अलाया सी उततक दईय स लगा।.

लॉगयो हिय शबद हो फीनहो | य मौतप तर मन चीन‍ही॥ मथी निकट तब लखि दख पाया। सखन भो+ वन सनाया ।|

जब उश क हदय म थाण लगा। और उसन हा शचद किया तत मत जनो कि थह कोई मातप ह। जब म निकट गया ती दश कर बडा तःणसी हआ | तव सखन न सकक स कहा---

शोच यरह बत मपति हबारी । नो म कहह करह थहिवारी।। म सर बस स बह पित धाता | भवन विहीम दोउ सखदीता।।

ह रखत ! मरा सोच भत करी और जो कह वह करी | मरा नम सखन ह ओर म माता पिता की सधो करता ह मर छखदता मोता और पिता सवन विहीन ह।

तिमद ठप म अधिक सतावो | लन हत जल काहो शराथो ५ जम दोनो को बहत पयास लगी थी सो उनक लिए म जल लन

खाय थी।

सो तपन अबञान स, उप मप मारज बास । याहि सतिय हह स, मिस चाहत आए ।

अर ऐप मत शकीरमम आनी। परी कही सतय ही पानी ॥ पर इक बति हिय मथ लारई | परम पित आत मिकट तपजावह।

तिनओ हि6त स नीर पिवाई। पाद कहियो मम सशकाई॥ करहिन शाप कर उपदशो | सतथ सक रघवश मरशो ॥

झब त दीम बाण निकारी । छम दरशरथ द।खित भरय भारी।॥ हिय स मरगहि मिकारो वाणी । आकार कह छाडयो वीणा ॥ जप दरशसथ घट लियो उठाई | तिहि ह पाज पितो ढिम मोड। |

धयावन लग भीर विदय वानी । व बोल दमपति दरब मानी।। सा द राजन | आपन अडान स मर बीण मारा जिसस मर

शानरामायण : ( ७७ » ... -कमगति !. १।ककमकनयक००- ५०-७० जअजज हल

६ 'समकन- कफ जय अक-+क७.. 2 कक. >बबणन व परयअय ०» कल “कम 3क>ल- +ा -०७०४५००२८+- "०-74 पकलनकीक कर क अर जम कफ क डक ल जम की को 'कत-ऊ-3--+3+%- कननती-+-क लत

- पराण निकलना चाहत ह। अब तम चिनता न कर मर माता पिता _ क पास जाकर उन को जल पिलला विनय पथथक समकका दना ताकि यह शोब न-कर और इस बाण को मर हदय स निकाल लीजिय। यह सन भ बहत दःखी हआ, ओर जयो ही उसक शरीर स वाण निकाला कि उसन आऔझोकार क उचचारण क साथ अपन पराण छाॉड दिय । तब मन घड को उठा लिया और सरवन क माता पिता क पास जाकर छिना बोल चाल जल पिलान लगा उस समय नननरहित उन दोनो न दखी होकर कहा--

: थतर न बोजत आज तपर. हपस छनदर वन । कारण कवन सोकहह तम जासो हो जिय चन ॥

ह पतर ! तम आज हमस कयो नही बोलत इसका कया कारण ह : सो कहा। जिसस हमारा मन परसनन हो ।

विन बोल हम पियहिन नीरा | सन भय दशरथ अधिक पीरा। -सपाचार सब दिय” सनाई । पर धरति दोऊ अकल।!ह ॥।

तमदारखिना बोल हम जल नही पियग 'यह सन चडी वयाक लता क राथ मन सब हाल कह दिया जिसको खझन दोनो धवटा

_ कर पशचिवी म गिर प द

. पतर पतर कहि रोवन लाग | मोसन कहन लग शभाग ॥ - जहा: पतर|तह दवह दिखाई । तब म तिन कह. गयऊ लियाई ॥

- और व दोनो पतर २ कह कर रोन लग और जिर मझ स कर हा अग अभाग ! जहा पतर ह वहा हम ल चलो | तव म उन द(नो को

' 'जसत रथान पर ल गया । ॥5 को

पतर उठाय गोद महतारी | रोबन लगी शबद कर थारी | पलि दोउन गरह बात सनाई । दीज नपति चिता बरसस‍तराई ॥

... / महताएी पतर को गोदी म उठा चिलला कर रोन हागी | फिश . दोन। न मझ स कहा राजन ! चिता बनवादो।

सनि मन रच विता बनाई । बठ पतर सहित दोउ जाई ॥ : योग अगनिरम निन तनजारा । मरण समय अस व चन २चा+। ॥।

यह सन मन चिता बनादी । उसम व कोनोपतर सहित जा बठ

ह"

जा अजलि जमकन‍क न ओक नन जी जाम - 3० वकन- "कम >> ० ++++' अजब» - "कक टाजिल०- ०

ओर योग की अगनि म अपना शरीर जलादिया मरत समय उनहोन मझ स कहा

जिमि हम परन वियोग म, दशरथ 5 तयाग / पराण । एस ही तन तनह तप. मान ह --वचन परमाण ॥

ह राजन ! जस हम पतर वियोग म शरोर सयागत ह। ऐस ही ॥सनदह तमहारो भी मतय हीगी। हक क

शितजञा-परष को अपन किय अचछ बर कमा को फल अच-

भोगना पडता ह अरतः बर करमो, का सवपन म भी खितवन न र सदा अचछ काम करन चाहिय। . द ह

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कमरसयण... ( ७६ » शोचदीय कौर ह ३० क कम नमन वन 2० च>+>-+

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ह: 22522 02:47 843.

शोचिय विपर जोवद विहीना । तजिनिज परम विषय लकलीय।

शावियनपहिनी रीति न जाता । जहिद मइवएपरिय पराण समासा | , कद‌ विददीक बराहमण तथः जो अपना चरम छोड विषयो: म खब- -

लीन रहता ह उसका सोच करना. चाहिय॥ यह , राजा भी रोज

करन योगय ह जा नोति नहो जानता तथा जिसको परजा पराणो क समान पयारो नहो द ।

शौचियनशय कपण धनवान । जोन अतिथि शिवभकति सजान। शोचियशदर वजिपर अपमानी | शखरमान परियजञान शमानी ॥

यह वशय शोचनीय ह जो धनवान होकर कपण ( कजस)

हो तथा जो अतिथि और ईशवर का भकत न हो। उस शदर का सोचकर जो बराहमण] का अपमान करन चाला बडत वोलन ओर मानी तथा शान का गमान कर। क‍

शोचिय पनि पति वचक नारी | कटिल ऋलह परियवचछाचारी।

शोचिय वटनिज वरत परिहरई । जोनहि गरआयस अनसरई ॥

पति स विपरीत चलन बशली, 'कटिल, कलह करन वालो

आर अपनी इचछ ठसार कारय- करन: पाली सतरी शोचनीय ह ।

उस वहाचारी का भी शोच करना योगय ह जो अपन_ अशयचयतरत को छोडकर गरकी झराशा न मान । ५

शोचियशही जो मोहवश, कर धम पथ सथाग । शोचिययती परपचरत, विगत विवक विराग |

... डस गहसथी का शोच करना चाहिय जो मोहवश धरम मारग को छोडद उस खनयासरी क हत शोच करना डचित ह जो पाखडी बन रोजगार कर । द

बखानस सोइ शोचन योग । तप विहाय जहि भाव भोग '

हि न भा ४ाआआआआाओ

बइशयरामाकस [ ७8 ) शोचकीय: फौण ह

शोवियपिशन अकारण' कराधी । जननिजम ऊ सरषध विरोधी | यह यानफरसथ आशरमी शोचन योगय ह जो तपर छोड भोग

म मन लगात उस चगली करन और घिनला कारणक करोध करन थाल का शो व. कराया चाहिय जो माता, परिया, यद, और भाइयो स घिरोध करन हारा ह।

सदकिति शोविय पर आवकारी ६ निजतमपोषक मिदयभारी | शपरकय सोबतिसत रतझाभरी ।सरकषति निन‍दक पर घन सवामी ॥ शोचनीय सबही विधि सो॥ई | जोनदाडि छलहरिजम होई। सक परकार स फराय काम विगाडन और, अचछ २ भोजनो:

को. उछापहर खा उतन वाफल, महावोभी, अतयनत, काझी, वद तथा दिमवानो को निनन‍दा तथा दसरो का घन मारन दाल शोचनीय ई आर इन सबस अधिक यह शोचनीय ह जो घगला भकत चन |...

शिकषा मदपय को यह काम करन चाहिय जिसस उसको यीछ पचताता और जन समाजो म निन‍दनीय व दोना पड ।

कनरामायण ( उऊद ) । जीय लकषण

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४५६ जीव लचषण क 8 कक अ

उप जिपाद जान अजञोाना | जीवधरम अहमिति अभिमाना | परसन‍नता, दख, शान, ओऔतान, अहकार, अभिमान यह जीव

लकषण ह॥ ११२॥

उपिपरत आडावर पानी | जिमि जीवहि माया लपटानी ॥ जस जल पथिवी पर पडन स मला हो जाता ह वस ही जीव

या क साथ म मलिन हो जाता ह ।

जो सवकरह जञान एकरस । इशवर जीवईहि भद कहहकस। मायावशय जीव अभिमानी । इशवशय माया सणखानो | परवशनीव सववश भगवता । जीव झनक एक शरीकता॥

ईएशयर सबक शान का सथान तथा एक रस ह। अशरभिमानी जीय माया क वश ओर वह माया ईशवर क आधीन ह यही जीव और ईशवर म भद ह। जीव अनक ओर पर वश ह तथा ईशवर सवतनतर ओर एक ह ।

धकनीी ९ र ७...

शरीराम का लचमण को इशवर »&र जीव क भद का उप,श।

थोड म सत कहा बभाई । सनहतात मतिमन चितलाई | क प‌ ता. चर आर जी

म अर मरितोरि तगराया | जहिवश कीन‍नह जीवनि काया ह भाई। थोड म सब समझा कर कहता ह तम बदधि और

मन लगाकर सनो शरीर म अहभाव ( मही ह ) सॉसारिक पदारथो' म ममता; यह माया का सवरप ह इस मर और तर ही म सब चराचर को अपन आधीन कर रखा ह।

गोगोचर जहा लगिमन जाई | सोसब माया जानह भाई । तहिकर भद सनह तमसोड । विदयाअपर अविदा दोऊ॥

' शञानशमायण ( 3$& ) दास का उपदश "ज व कबबकलन+ा ५. 7०: अनजान लमघलनवयन+तन न: जीनओअलकलन +बक०+ कब. परनन‍चि नननला।: जब बन >>

हनदरियो का विषय झर जहा तक मन जाता ह वह सब

माया ह । उस माया अथात‌ परकति क दो रद ह एक विदया दसरी अदविदया |

एक दषठ अतिशय दखरपा' जावश जीवएराभव कपा। एकरच जगगण वशताऊ '. परभपरगति नहि निमवलताक ॥

, अरविदया दषट और अधिक द.ख सवरप ह जिसक वश .. हर बढ डर ७३ हो -

होकर जीव ससार रप कए म गिरता ह । विदयारपी माया परभ फी यरणा स ससलर का गयता ह ।

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शानराभापक ( ४० ) झतरी घजा ज++. अपार -च० 43.3 ९५०--२००३७७-२-२०-२५५ ३ “जनयाक-याइछ ९० ७.2०. जफत न >>++> आटा +* ज चकित का “जा

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भिस परकार स‍तरी की पति की सवा करनी चाहि बस ही परषो को भो सतरी का नाना पकार

क आमभपण आदि स सतकार करना योगय ह।

एवबार चनि कमम सहाय । निजकर भपण राप बनाय

सीतहि पदिराय परशसादर | बठफटिक शिला परपाधर ,,

पक वार शरीरामचनट जी सनदर फल तोडद.र अपन हाथो स। उसक आमभरण बना आदर पवक ज/नकरी को प<राकर सनदर सफद पवत की शिला पर बठ |

शितञा-परतयक मनषय को अपनी रतरी का सतकार कऋरम,

योगय द ।

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शानराफमायण ( ८१ ) सचचो जितसदरियता अभिजधिलल लिन पान क न कीट जी लय उपज लाओि- टला. असशकक २बक--क०नज- "०+५-३+३क+--++०%-७०८ -०+५०३-७ ५७ ४»-० अकनकनम पक क-+" नस तन सी. ->-3+>>न->क)ब+ पनक “जज 7775 “3०७०७-७--०कीनलीतयन- लत तवलनन-नन»--ास 4 फमननटीी भीमलयकानसप»+-+त०म मन

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भावी होत हए भी जती लकषमण न सीता क मखारविनद को कभी नही दखा

कहपरथ लकमण सोयह वाता । पहचानत पट भषण ताता । हाथ जोरि लकषमण य बोल । रघनायकऋ सॉबचन अपोल।

रामचनदर जी न लकमण स कहा ह भाई कया तम यह गहन ओर वसतर पहचानत हो यह सन लदमण न कहा--

पगभषण मसकत चिनहारी | ऊपर कबवह' न सीय निहारी ॥ ह भराता ! म कवल परो क आभणो को ही पहचिचान सकता

ह क‍यो कि सीता जी की मख की ओर मन कभी नही दखा ।

शितता-बडो को पजय, बराबर वालो को समान एव छोटो ” को परम की दषटि स दखन एव उनक साथ सदटवयवददार करना ही

जिलनदरियता का पददिला लकषण ह ।

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उपदश सगरह ।

नहि कोउ असजनमउ जगमाही | परशतापाय नाहि मदनाहोी ॥ ससार म ऐस पिरल दी मनषय ह जो परभता पाकर घमनड

नही. करत ।

यदपिमितर परशपित गरगहा। जशय विनवोल न सदहा ॥ तदपि विरोधमान जह कोई । तहा गय कलयाण न होई ॥

यदयपि मितर, सवामी, पिता ओर गर क घर बिना बलाय जान म कोई हानि नही तो भी जदाा कोई अपन स बर रखता दो वहा जान म कलयाण नही होता । ः

यदयपि जगदारण दःखनाना | सबत कठिन जाति अपमाना | यदयपि ससार म बडर कठिन दःख ह लकिन उसम जाति का

निरादर सबस कठिन ह।

जकामी लोलप जगपराही। कटिल काक इबसवहि दराही ॥ ससार म जो कामी और लोभी ह व कटिल कौए की नाई

सब स डरत ह।

तहित कहहि सनत शरतिट र । परम अकिचन परियहरि कर॥ १४२॥ इस कारण वद और सनत कहत ह कि जो कामी और लोभी

नही द वह ईशवर क पयार ह ।

नहि असतयसम पातक पजा। गिरिसम होहिकिकोटिक गजा । सतयगल सब सकत सहाय | वदपराण विदित पलनिगाय ॥

अपतय ( कठ ) क बराबर ओर पातको क समह भी नही हो सकत जस करोडो चोटली परवत क समान नही हो सकती । जितन सनदर अचछ कारय ह... सब का मलन सतय ह ऐसा बद, पराण ओर मन न कहा ह ॥

शानरामाजण ( धई ) डपवश सभड हा कक जात अवार+क 3 +34७ "कक +मबक 3-०० ५/कक नस

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तनतियतनय धामबन धरणो | सतय साधक ३ दशसमबरनी ॥ शररर, सतरी, पतर, धाम धन और पथितरो यद सायतरददिया

को तण क समान ह ॥ भरथात‌ सतय क सनमख यह सब ठचछ ह ।

इपहि जलद भपरि नियराय , यथा नवदिि बध विदया पाय । जिस परकार बरसन वाल बादल पथिवी क निकट आकर

घरसत ह बस दी पडित विदया परापत कर नपन ओर खशोल हो कषात द ।

खोजत पथ मिल नहि धरी । कर करोध जिमि धरमहि दरी ' जस बरषाऋत म घलि कटदो नही मिलती वस दव कोच फरन स

घऋम नहो रहता।

शश समपनन सोहमहि कसी | उपकारी की सपति जसी । घरषा ऋत म दरियाली स पथिवी ऐसी शोमित होती ह जस

परोपकारी की सपतति । द

महा दषटि चलि फटि कियारी | जिमि सवतनतर हई विगरहि नारी ॥

सवतनततरता स सतरी ऐसी बिगड जाती ह जस वरषाकाल म पानी कयारियो को तोडऋर निकल जता ह |

विविध जनत सकल महि भराना। बढ परना जिमि पाय सराना ॥

जइतह पथिक रई थक नाना । जिमििनदरिय गण उपज जञाना ॥

सराजय को पाकर परजा ऐस बढती ह जस वरषाऋत म अनक

लीघ | रथघाकालम बटोही बार न निकल घर म ऐस बठ रहत ह

जिस परकार जञान उतपतति होजान स इनदरिया सथिर दोजाठी द ।

कपह मपल चल मारत, जह तह मघ विलाहि ।

निधि कपत क उपज, कल कर धम नशाहि ॥ कपत क उतपनन होत ही कल फ सब धरम एस नषट होजात ह

झस तज याय क चलन स मघ ।

उदित अगतय पनथ मदञ शोषा | जिमि लोभहि शोष सतोषा । ईस अरमसतय ताग क उदय होन पर माय का अल सखना

परारमभ इजता ह ५७रददी रदय स कोम पा न) ६. आता ६ ।

(बकककक “मन ५र_ फनी" 2४ ५०--»की--क-+>+++पक००-+>+ जम

शानरामायण ( #४७ ) . झचदश सगरह शव 33 जल नसनीन++0 3-9 «+7-इ-जक-००र८बक,

जल सकाच विकल भय मीना विजथव कठमबी जिमिधन हीना। बड कउमबो बिना धन क ऐस बयाकल होत ह जस थोड

जल म सछलो ।

सवक सखचह मानभिखारी | बयसनो घन शभगति वयभिचारी॥ लोभी यश चह चार गमानी | नभदहि दध चहत य परणी॥

सवक को खख, भिखारी को मान बयसनी को धन बयभिचारी ( दराचारी ) को शर परगति, लोभी को यश, और अभिमानी को शोभा की इचछा करना ऐसा ह जस कोई आकाश को दह कर दध चाह॥ ६४१ ॥ द

सगत यती कमनतर स राजा । मानत जञान पानत लाजा। परीति परणय विनन मद स गनी | नाशहि वग नीति अस सनी ॥

सगति स सनन‍यासी, खोट मन स राजा, मान स शान, मदिरा पीन स लाज, नमनता क विना परीति ओर अहकार स गणो का नाश ततकाल होजाता ह। शसतरी-परमी परभ शठ धनी । वदय बदि कवि मान सगनी।

हथियार बध, मम जानन वाला पडोसी, राजा, मख, धनी, हकीम, भाड कवि, और गणी पडित स बर न कर । पर हित वशजिन क मन माही | तिनकह जगदल भकछनाही |

जिनक मनम परोपकार बसता ह उनको ससार म कछभी दरलभ नही ।

. सवक शठ नपर कपण कनारी । कपटी मितर शल समचारी मरख सवक, कपण, राजा, दषट सतरी, कपटी मितर वह शल क

समान ह ।

अनज बध भगिनी सतनारी ! सन शठ य कमया समचारी ।

इनह करटषटठ विलोक जोई। ताहि बध कछ पाप न होई ॥ छोट भाई की वह, वहिन-वट कौ यह ओर पतरी य चारो

समान ह इनको जो कोई खाटी दशटि स दख उसक मारन स पाप नही होता । द

१--सनयासी को ३ दिन स अरधिक नही रहना चाहिय ओर न वभी किसी का रग वरना जाहिय।

_जॉनिरामायण. ( ८५ ) / इपदश सगरह अनसकिकक+ननत. ' ऑभनल 4 -ननकलान टिलनऊ-

नशीली क कल न बडी न 7४ जज + कए -कत>००->०+ *+ममकडक,

जोकि कपट दल जगकाह। दइहि इश अधम गतिवाह ॥ जो कोई कपट स किसी को छलता ह इशवर उसको नीच

गति दता ह ॥ १४१ ॥

बढ सनह लघनपर करही | गिरिनिज शरन सदा तण धरही ॥ . बड मनषय छोटो पर सदा परीति करत ह जस परवत अपन

सिर पर सदा ठण धारण करता ह ॥ १४७ ॥

जहिक जहिपर सतय सनह । सो तहि मिलत न कछ सदह ५

निःसमदह जिसका जिसपर सतय सनह होता ह सो तिसको अवशय मिलता ह ।

अनचित उचित काजकछ होई | सममिकिरिय भलकद सबकोई। हसाकरिपाछ पछिताही कहहिबदद बधतबध नाहझ ।

उचित या अनचित ,काय को सोच समभ कर करन द ज भरषछठ हहात ह । जा शोघता करन वाल ह वह सवय पीछ पछतात

शोर पडितो की दषटि म नीच गिर जात ह ॥

गरवित भव निधि तर न कोई. जोविरचि शकर समहोई

विजगर हो इकि जञान, जञानकि होय विरागविन । गावहि वद परान, सखकिलहहि हरिभकतिविन ॥

कोउबिशराम किपाव, तात सहज सतोष वितन । . चलकि जलविननाव, कोटियतन पचिपचि मर ॥ बिना गए क शान और शान क विना बरागय नही होता:

घद और पराणो का यह भी कथन ह कि बिना ईशवर भकति क

सख नही मिलता | ह तात ! सवाभाविक सतोष क बिना शानति

की पराति नही हो सकती जस अनक यतन करन पर भी बिना

जलकऊ नोका नदी चलती ।

बिज सतोष न काम नसाही। काम अछत खख सवत हनाही |

रामभजन विनभिटहि न कामा | थलविशन वरकबह किजामा

बिना सतोष क काम का नाश नही होता तथा कामी परष

काणभरामाणर .._( अई 9) बअ०कादा०कोलममाबा

को सवपन म भी खख की परापति नददी दोती । ईशवर क भजन विना

कामना का नश नदो दोता जस पथवो क बिना वतत नददी जनता।

विनविजञान कि समता आव । कोउ अवकाश क नभ विनपाव ।

भरदधाविता परमनहि धोई , विजयमदिगग कि पाब कोई ॥

शान क वि. समता, आकाश क बिना %बऋश, शरदधा क

विना घ4 ओर ..थवी क बिता गध मालम नही ह(तो ॥

बिनतपतत किकर विसतारा | जलविनन रस क होह ससारा।

श‌ लकि मिल बिनयध सवकाइ |जिमिविन तज न रप गसाह ॥

बिना तपक तज की बदधि तथा ससारन जजक बिन; रत, (९

पडितो की सवा क बिना शील को परात नदी होती जलस तज क

बिना रप नही दीखता। .

निमरसख वित मनहोई दि थीरा परसिकरि होइविहीन समीरा।

कबनिउ सिदधिकिवित विशा सा वियदरि मनन न मत मयवा ता॥

बिना मन सथिर किय इईशयर की परपति नही हो सकती जिस

परकार बाय क रन सवरो नही होता | विशवास क बिना सिदधि

ओर ईशवर क भजव क बिना सस;र क भव का नशश नही होता।

शिकषा-;न अमय बचरजो पर सदा धयान रखना चाहिय।

# ओषम‌ #

_ पानन-परिचय ।

इशरथ-अयोधया क अधिपति थ।

रशाभचनदर-राजा दशरथ क बड पतर । लचमण-रामचनदर क छोट भाई ।

अरत-लदमण क बड भाई । शतरधन-लदमण क छोट भाई ।

फौशिलया -राजा दशरथ की दडी रानी ।

ककयी-सवस छोटी रानी। क‍

समरितरा-मदाराजा दशरथ को दवितीय रानी ।

वसिषठ-कल परोददित । . वविशवामितर-मनि।

सीताजी-महाराजा जनक को पतरी ।

अनसइया-अगसतय ऋषि की पतनी । मनदो दरी-रादण की बडी रानी । मआरीच-ताना परकार क कपट बष धारण करन घाला राकषस

गह-निषादी का राजा शरीराम का मितर ।

'जटाय-अरण राजा का छीटा पतर । इनपान-अजनि का पतर और खपनीव का मन‍तरी ।

# झोदम#

ड विषय-सची &*

३--परभमहिमा और उसकी | १६--भरतजी का सचचा तयाग ।

गझराशापालन का फल । १७--पति-भकति ।

२---अयोधय। का दशय । १८--नारिधम।

३--वदोकतकरम । | १६--अजखइया का उपदश ।

४-भनषय शरीर का महतव २०--मनदो दरी का राचण को

अर।र उसका कतवय | समभाना ।

कि शरर कर र ह कक हक ह अमर २१--सीताजो और रावण ।

[ | ४२--मारीच का रावस को

६-अर छ परषो क लकषण । कट क

७--दरजन लकषण । कर हिल

८४--भ छ परषो क साथ सह- ३ आस रावण

वास करन क लाभ । उपदश । अप

६--मितर और कमितर २४--सथ सदायक और उनस

१०--पराचीन मितरो का वयब- विजय की परापति ।

हार। २५-कमगति |

११--राजभकति । २६--शोचनीय कोन ह।

११--आचाय मकति। -. २७--जीव लकषण । श

१४३--मात-भकति । :.. | २८--राम का लकमण की उपदश

१४--शरात-सकति । २६--सशरीपजा ।

१५--समितरा का लचमण को | ३२०-सबची जितनदरियता।

डपदश। ४१--डपदश सगरह ।